9 नवम्बर, 1936 में जन्मे सुदामा पाण्डेय धूमिल का जन्म बनारस (उत्तर प्रदेश) के खेवली गांव में हुआ था. उनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही हुई और कूर्मि क्षत्रिय इंटर कॉलेज, हरहुआ से उन्होंने साल 1953 में हाईस्कूल किया. आजीविका के लिए काशी से कलकत्ता तक भटके. नौकरी मिली तो मानसिक यंत्रणा भारी पड़ी. अपने अंतिम दिनों में ब्रेन ट्यूमर से पीड़ित रहे और 10 फरवरी 1975 को उनका निधन हो गया.
धूमिल साठोत्तर हिन्दी कविता के शलाका पुरुष हैं. उन्होंने अपनी पहली कविता कक्षा सात में लिखी थी. उनके प्रारंभिक गीतों का संग्रह- ‘बांसुरी जल गई’ फिलहाल अनुपलब्ध है. उन्होंने कविताएं लिखने के साथ-साथ कहानियां भी लिखीं. लेकिन उनकी कीर्ति का आधार वे विलक्षण कविताएं हैं जो ‘संसद से सड़क तक’ के बाद आम जनमानस तक पहुंची.
धूमिल सच्चे अर्थ में जनकवि हैं. लोकतंत्र को आकार अस्तित्व देनेवाले अनेक संस्थानों के प्रति मोहभंग, जनता का उत्पीड़न, सत्यविमुख सत्ता, मूल्यरहित व्यवस्था और असमाप्त पाखंड धूमिल की कविताओं का केंद्र है. वे शब्दों को खुरदरे यथार्थ पर ला खड़ा करते हैं. भाषा और शिल्प की दृष्टि से उन्होंने एक नई काव्यधारा का प्रवर्तन किया है. जर्जर सामाजिक संरचनाओं और अर्थहीन काव्यशास्त्र को आवेग, साहस, ईमानदारी और रचनात्मक आक्रोश से निरस्त कर देनेवाले रचनाकार के रूप में धूमिल चिरस्मरणीय हैं.
धूमिल के विषय में अशोक वाजपेयी लिखते हैं, “धूमिल मात्र अनुभूति के नहीं, विचार के भी कवि हैं. उनके यहां अनुभूतिपरकता और विचारशीलता, इतिहास और समझ, एक-दूसरे से घुले-मिले हैं और उनकी कविता केवल भावात्मक स्तर पर नहीं, बल्कि बौद्धिक स्तर पर भी सक्रिय होती है. धूमिल ऐसे युवा कवि हैं जो उत्तरदायी ढंग से अपनी भाषा और फार्म को संयोजित करते हैं. धूमिल की दायित्व-भावना का एक और पक्ष उनका स्त्री की भयावह लेकिन समकालीन रूढ़ि से मुक्त रहना है; मसलन- स्त्री को लेकर लिखी गई उनकी ‘कविता’ उस औरत की बगल में लेटकर /में किसी तरह का आत्मप्रदर्शन, जो इस ढंग से युवा कविताओं की लगभग एकमात्र चारित्रिक विशेषता है, नहीं है, बल्कि एक ठोस मानव स्थिति की जटिल गहराइयों में खोज और टटोल है जिसमें दिखाऊ आत्महीनता के बजाय अपनी ऐसी पहचान है जिसे आत्म-साक्षात्कार कहा जा सकता है.”
वाजपेयी आगे लिखते हैं, “उत्तरदायी होने के साथ धूमिल में गहरा आत्मविश्वास भी हैं जो रचनात्मक उत्तेजना और समझ के घुले-मिले रहने से आता है और जिसके रहते वे रचनात्मक सामग्री का स्फूर्त लेकिन सार्थक नियंत्रण कर पाते हैं. यह आत्मविश्वास उन अछूते विषयों के चुनाव में भी प्रकट होता है जो धूमिल अपनी कविताओं के लिए चुनते हैं. ‘मोचीराम’, ‘राजकमल चौधरी के लिए’, ‘अकाल- दर्शन’, ‘गांव’, ‘प्रौढ़ शिक्षा’ आदि कविताएं, जैसा कि शीर्षकों से भी आभास मिलता है, युवा कविता के सन्दर्भ में एकदम ताजा बल्कि कभी-कभी तो अप्रत्याशित भी लगती हैं. इन विषयों में धूमिल जो काव्य-संसार बसाते हैं, वह हाशिए की दुनिया नहीं, बीच की दुनिया है. यह दुनिया जीवित और पहचाने जा सकनेवाले समकालीन मानव-चरित्रों की दुनिया है जो अपने ठोस रूप-रंगों और अपने चारित्रिक मुहावरों में धूमिल के यहां उजागर होती है.”

जब तक हमारे देश में और दुनिया में मुफलिसी की लड़ाई है, तब तक कभी न विस्मृत होने वाले कालजयी कवि ‘धूमिल’ की कविताएं मजबूती से खड़ी रहेंगी और सवाल पूछती रहेंगी.
प्रस्तुत हैं ‘धूमिल’ के सुप्रसिद्ध काव्य-संग्रह ‘संसद से सड़क तक’ से दो चुनिंदा कविताएं. साल 1972 में प्रकाशित हुए इस काव्य-संग्रह की कविताएं तत्कालीन सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य का गहराई और ईमानदारी से परिचय कराती हैं.
1)
कविता
उसे मालूम है कि शब्दों के पीछे
कितने चेहरे नंगे हो चुके हैं
और हत्या अब लोगों की रुचि नहीं–
आदत बन चुकी है
वह किसी गंवार आदमी की ऊब से
पैदा हुई थी और
एक पढ़े-लिखे आदमी के साथ
शहर में चली गयी
एक सम्पूर्ण स्त्री होने के पहले ही
गर्भाधान कि क्रिया से गुज़रते हुए
उसने जाना कि प्यार
घनी आबादी वाली बस्तियों में
मकान की तलाश है
लगातार बारिश में भीगते हुए
उसने जाना कि हर लड़की
तीसरे गर्भपात के बाद
धर्मशाला हो जाती है और कविता
हर तीसरे पाठ के बाद
नहीं– अब वहां अर्थ खोजना व्यर्थ है
पेशेवर भाषा के तस्कर-संकेतों
और बैलमुत्ती इबारतों में
अर्थ खोजना व्यर्थ है
हां, अगर हो सके तो बगल के गुज़रते हुए आदमी से कहो–
लो, यह रहा तुम्हारा चेहरा,
यह जुलूस के पीछे गिर पड़ा था
इस वक़्त इतना ही काफ़ी है
वह बहुत पहले की बात है
जब कहीं किसी निर्जन में
आदिम पशुता चीख़ती थी और
सारा नगर चौंक पड़ता था
मगर अब–
अब उसे मालूम है कि कविता
घेराव में
किसी बौखलाए हुए आदमी का
संक्षिप्त एकालाप है
2)
सच्ची बात
बाड़ियां फटे हुए बांसों पर फहरा रही हैं
और इतिहास के पन्नों पर
धर्म के लिए मरे हुए लोगों के नाम
बात सिर्फ़ इतनी है
स्नानाघाट पर जाता हुआ रास्ता
देह की मण्डी से होकर गुज़रता है
और जहां घटित होने के लिए कुछ भी नहीं है
वहीं हम गवाह की तरह खड़े किये जाते हैं
कुछ देर अपनी ऊब में तटस्थ
और फिर चमत्कार की वापसी के बाद
भीड़ से वापस ले लिए जाते हैं
वक़्त और लोगों के बीच
सवाल शोर के नापने का नहीं है
बल्कि उस फ़ासले का है जो इस रफ़्तार में भी
सुरक्षित है
वैसे हम समझते हैं कि सच्चाई
हमें अक्सर अपराध की सीमा पर
छोड़ आती है
आदतों और विज्ञापनों से दबे हुए आदमी का
सबसे अमूल्य क्षण सन्देहों में
तुलता है
हर ईमान का एक चोर दरवाज़ा होता है
जो सण्डास की बगल में खुलता है
दृष्टियों की धार में बहती नैतिकता का
कितना भद्धा मज़ाक है
कि हमारे चेहरों पर
आंख के ठीक नीचे ही नाक है.
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FIRST PUBLISHED : November 9, 2023, 12:47 IST
