‘फिर वही आकाश’, ‘आदमी के नाम पर मज़हब नहीं’, ‘मैं हूं हिन्दुस्तान’, ‘लौट आएंगी आंखें’, ‘बापू’, ‘ज्‍योति’ काव्य-संग्रह के लेखक रामकुमार कृषक का जन्म मुरादाबाद (उ.प्र.) के गांव गुलड़िया में हुआ था. उनके गज़ल-संग्रह ‘नीम की पत्तियां’ और ‘अपजस अपने नाम’ ख़ासा लोकप्रिय रहे हैं. विभिन्न साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों में हर समय सक्रिय रहने वाले कृषक बच्चों तथा नवसाक्षरों के लिए सात पुस्तकें ‘कर्मवाची शील’ नाम से संपादित कर चुके हैं. उन्हें हिन्दी अकादमी, दिल्ली के साथ-साथ कई संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत और सम्मानित किया जा चुका है. उनकी रचनाएं महत्वपूर्ण काव्य संग्रहों और पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं.

रामकुमार कृषक साहित्य की तरह पत्रकारिता में भी सक्रिय तौर पर काम करते रहे हैं और पिछले कई वर्षों से निरंतर कार्यरत हैं. वह लंबे समय तक गज़ल पर केंद्रित हिंदी की विशिष्ट पत्रिका ‘अलाव’ के संपादक भी रहे. साल 1988 में उन्होंने अपने कुछ मित्रों के साथ मिलकर इस पत्रिका की शुरुआत की थी.

कुछ हफ्तों से दिल्ली-एनसीआर की हवाओं में ज़हर घुलना शुरू हो गया है, हवाएं पूरी तरह प्रदूषित हो चुकी है, जिसे संभाले रखने के लिए एयर प्यूरिफायर भी दम तोड़ चुके हैं. कई स्कूल बंद हो चुके हैं, कुछ कंपनियों ने अपने कर्मचारियों को वर्क-फ्रॉम-होम की सलाह दे दी है. पिछले कई सालों से दिल्ली की हवाओं में प्रदूषण का ज़हर हर साल अक्तूबर-नवंबर के महीने में इसी तरह घुलना शुरु हो जाता है और लाखों हज़ारों लोगों को बीमार बनाता है. दिवाली पर दियों की रोशनी में उजाला कम प्रदूषण ज्यादा नज़र आने लगता है और कई घरों में बच्चों पटाखों से दूरी बना लेते हैं.

दिल्ली के प्रदूषण का असर इस कदर है, कि हर ओर इसी पर चर्चा है. घर की खिड़की से देखें या दफ्तर की खिड़की से, आसमान दिखना बंद हो चुका है और प्रदूषण की पूरी एक घनी चादर दिखाई देने लगी है. सुबह तो होती है, लेकिन पूरा-पूरा दिन सूरज दिखाई नहीं पड़ता. वो कवि जो प्रेम पर कविताएं लिखते हैं, मौसम, फूल, पत्तियों पर गज़लें कहते हैं, उनकी कलम प्रदूषण पर लिखने लगी है. ऐसे में बहुत ज़रूरी हो जाता है रामकुमार कृषक की उस बेहतरीन गज़ल को पढ़ना, जो उन्होंने प्रदूषण पर लिखी है-

प्रदूषण पर गज़ल : रामकुमार कृषक
हवा ज़िंदगी है हवा ही दवा है,
उसी का यहां किंतु दम घुट रहा है.

भरोसा न हो पूछिए अपने दिल से,
भरा फेफड़ों में धुंआ ही धुंआ है.

घटा सावनी हो या हो फागुनी रुत,
फ़ज़ा जो भी देखो वही बेमज़ा है.

बड़ा तो हुआ सोच बौनी हुई पर,
भले आदमी दिख रहा नौगजा है.

किसी भी खुदा को भला दोष क्यों दें,
हमारी तरक़्की हमारी सज़ा है.

Tags: Hindi Literature, Hindi poetry, Hindi Writer, Literature

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