स्त्री की मुक्ति ही मानवता की मुक्ति है- अनामिका

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पंडिता रमाबाई एक ऐसी महिला विद्वान थीं जिन्होंने हिंदू धर्म में महिलाओं की खराब स्थिति की ओर ना केवल ध्यान खींचा बल्कि विद्रोह भी किया. रमाबाई को देश की पहली फेमिनिस्ट कहा जाता है. उन्हें हिंदू धर्म के तमाम धर्मग्रंथ कंठस्थ थे. अपने तर्कों से वह हिंदू धर्म के बड़े से बड़े विद्वानों पस्त कर देती थीं. पंडिता रमाबाई ने ना केवल अंतरजातीय विवाह किया बल्कि धर्म भी बदला. वे हिंदू से ईसाई बनीं. ऐसी ही विद्वान रमाबाई के व्यक्तित्व और उनके कार्यों को लेकर चर्चित लेखिका सुजाता ने उनकी जीवनी तैयार की है- ‘विकल विद्रोहिणी: पंडिता रमाबाई’. यह पुस्तक राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई और खूब चर्चित भी रही. इस पुस्तक पर राजकमल प्रकाशन समूह द्वारा एक गोष्ठी का आयोजन किया गया.

कार्यक्रम का संचालन कर रहे शोभा अक्षर ने श्रोताओं को गोष्ठी के विषय से परिचित करवाते हुए कहा कि सुजाता द्वारा लिखी गई पंडिता रमाबाई की जीवनी स्त्रीद्वेष से पीड़ित पितृसत्तात्मक समाज पर एक कड़ा प्रहार है.

सुजाता ने अपने वक्तव्य में कहा कि पंडिता रमाबाई की जीवनी लिखने का फैसला इसलिए लिया, क्योंकि वह उस वक्त को जीना चाहती थी, जो उन्होंने (रमाबाई ने) जिया. उनका जीवन अति नाटकीय, तूफानों और उथल-पुथल से भरा हुआ था. 19वीं सदी, जो कि एक पुरुष प्रधान सदी थी, वह उसमें अपने पांव जमा पाने में सफल रहीं. जिस तरह का वह समाज था, उस समय उनके चरित्र पर कई लांछन लगे होंगे. रमाबाई के इसी निर्भीक व्यक्तिव ने उन्हें प्रभावित किया.

सुजाता ने कहा, “भारत में सबसे पहले पंडिता रमाबाई ने ही नारीवाद की अवधारणा को उद्घाटित किया. उन्होंने अपनी किताब ‘द हाई कास्ट हिन्दू वुमन’ (The High-Cast Hindu Woman) में लिखा कि किस तरह हिन्दू धर्म में एक औरत को औरत बनाए जाने की ट्रेनिंग दी जाती है. रमाबाई ने देश-विदेश में अकेले यात्राएं करते हुए अपने भाषणों के जरिए धन एकत्रित किया और भारत लौटने पर हिन्दू विधवा लड़कियों के लिए एक स्कूल खोला. यह कोई आसान काम नहीं था. ऐसा कर पाना आज भी किसी के लिए बहुत मुश्किल है.”

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सुजाता ने कहा कि जब भी समाज सुधारकों की फेहरिस्त बनती है तो उसमें पंडिता रमाबाई का नाम शामिल नहीं किया जाता है. क्या केवल इसलिए कि वह एक स्त्री थी? आज के समय में कई राजनीतिक दल और संगठन उनका नाम लेकर फायदा लेना चाहते हैं, लेकिन अगर वो एक बार रमाबाई के बारे में विस्तार से पढ़ेंगे तो उनके नाम से दूरी बना लेंगे.

वरिष्ठ कवयित्री अनामिका ने कहा कि पंडिता रमाबाई हमारे समाज को समझाने निकली थीं. इसके लिए उन्होंने अंग्रेजी, संस्कृत और बंगाली भाषाएं सीखीं ताकि वह लोगों से संवाद कर सके. उनका सबसे बड़ा योगदान यही है कि वह संवाद के लिए प्रस्तुत होती है. उन्होंने कहा कि हर बड़े स्त्रीवादी आंदोलन के आंचल के तले हमेशा कोई न कोई बड़ा मुद्दा रहा है. स्त्रियों ने कभी अकेले अपनी मुक्ति के प्रयास नहीं किए. जिस तरह एक स्त्री को शिक्षित करना पूरे परिवार को शिक्षित करना है, उसी तरह स्त्री की मुक्ति ही मानवता की मुक्ति है. बृहत्तर मानवता की सेवा के रमाबाई के प्रयासों में भी हमें यही देखने को मिलता है.

साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित अनामिका ने कहा कि पंडिता रमाबाई पर सुजाता की किताब बहुत ही व्यवस्थित किताब है. इसमें रमाबाई के बारे में सब कुछ है. इसमें उनकी पब्लिक डिबेट, कई लोगों से उनके संवाद भी शामिल हैं. यह बहुत ही सहज और सरल ढंग से लिखी गई किताब है.

इतिहासकार सुधीर चन्द्र ने पुस्तक से सुजाता की पंक्तियों को उद्धरित करते हुए कहा कि उन्नीसवीं सदी भारत में पुनर्जागरण की सदी मानी जाती है. खासतौर पर महाराष्ट्र और बंगाल में इस दौर में समाज सुधारों के जो आन्दोलन चले उन्होंने भारतीय मानस और समाज को गहरे प्रभावित किया.

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उन्होंने कहा कि वह लेखक से पूर्ण सहमत हैं कि न केवल महाराष्ट्र बल्कि पूरे देश के नवजागरण को हमने अभी तक समझा ही नहीं है. देश में नवजागरण की चेतना फिर से जगानी चाहिए. यह हम तभी जान सकेंगे जब हमारे समाज में जो महान स्त्री-पुरुष थे, जिन्होंने समाज में नवजागरण की ज्योति जलाई, उन पर गंभीरता से ऐसा कुछ लिखा जाए जो कभी नहीं लिखा गया. इसका बीड़ा खास कर युवा वर्ग को उठाना होगा.

गौरतलब है कि सुजाता द्वारा लिखित किताब ‘विकल विद्रोहिणी : पंडिता रमाबाई’ भारत में स्त्रीवादी आंदोलन की अवधारणा की शुरुआत करने वाली एक प्रमुख चितंक पंडिता रमाबाई की जीवनी है. यह किताब हमें बताती है कि किस तरह प्राचीन शास्त्रों की अद्वितीय अध्येता पंडिता रमाबाई उपेक्षाओं और अपमानों से लगभग अप्रभावित रहते हुए औरतों के हक में न केवल बौद्धिक हस्तक्षेप किया अपितु समाज सेवा का वह क्षेत्र चुना जो किसी अकेली स्त्री के लिए उस समय लगभग असंभव माना जाता था. उनके द्वारा विधवा महिलाओं के आश्रम की स्थापना, उनके पुनर्विवाह तथा स्वावलंबन की पहल और यूरोप तथा अमेरिका में जाकर भारतीय महिलाओं के लिए समर्थन जुटाने का उनका भगीरथ प्रयास अक्सर धर्म परिवर्तन के उनके निर्णय की आलोचना की आड़ में छिपा दिया गया. यह किताब उस दौर की उन अनेक महिलाओं के बारे में भी जरूरी सूचनाएं उपलब्ध कराती है जिन्हें आधुनिक इतिहास लेखन करते हुए अक्सर छोड़ दिया जाता है.

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