ये हकीकत है, इत्तेफाक नहीं
जॉन बनना कोई मजाक नहीं!!
खुद को बर्बादी के बुर्ज तक ले जाना, उस मंजर में भी रचनात्मकता बनाए रखना और बर्बादी को लफ्जों में पिरो कर अनगढ़ शायरी गढ़ लेने का फन ही सैयद हुसैन जौन असगर को अदबी और आलमी दुनिया में जॉन एलिया बनाता है. वो जॉन एलिया जिसे दुनिया शायरों का शायर कहती है लेकिन वो खुद को कभी बड़ा शायर नहीं मानता. तभी तो मुशायरों के मंच से जॉन अक्सर कहा करते थे- मैं बौना शायर हूं. जॉन की शायरी में एक ओर किशोरावस्था का उच्छृंखल मन दिखता है तो दूसरी तरफ जीवन का फलसफा भी मिलता है. जॉन कहते हैं-
ज़िंदगी एक फन है लम्हों को
अपने अंदाज में गंवाने का
दूसरी तरफ यही जॉन एलिया लिखते हैं-
साल-ह-साल और एक लम्हा
कोई भी तो ना इनमें बल आया
खुद ही एक दर पर मैंने दस्तक दी
खुद ही लड़का-सा मैं निकल आया
कहने का मतलब है कि जॉन एलिया ना सिर्फ गंभीर श्रोताओं को अपनी ओर खींचते हैं बल्कि लोकप्रियता के पैमाने पर भी उनका कद बेहद ऊंचा है. जॉन उर्दू शेर-ओ-शायरी की दुनिया के शायद इकलौते नाम हैं जिनके चाहने वाले सरहद के दोनों ओर हैं. उत्तर प्रदेश के अमरोहा में पैदा हुए जॉन एलिया 1947 में भारत विभाजन को कभी दिल से स्वीकार नहीं कर पाए. 10 साल बाद 1957 में एक समझौते के तहत उन्होंने पाकिस्तान जाना कबूल तो किया लेकिन इसकी टीस हमेशा उनके दिल में रही. पाकिस्तान के लिए विदा होते वक्त उन्होंने अपने दोस्तों से कहा था-
अंजुमन की उदास आंखों से आंसुओं का पयाम कह देना
मुझको पहुंचा कर लौटने वालों सबको मेरा सलाम कह देना
प्रभात पाण्डेय की कविताएं- जख्म खंज़र का हो या नज़र का हो, भरने के लिए मरहम इश्क का चाहिए
हालांकि, हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच सरहद की लकीरें भले ही खिंच गई थीं लेकिन अपने सुनने वालों के लिए जॉन एलिया का जज्बा किसी भी सरहदी लकीरों से परे था. मुशायरे के मंचों से जॉन एलिया हमेशा कहते थे “सामायीन में मेरे लोग बैठे हैं, मेरे लाहौर के लोग बैठे हैं, मेरे लखनऊ वाले लोग हैं.” जॉन की कलम किशोरावस्था से ही मोहब्बत की फिज़ा में रंग घोलने लगी थी. उनकी कई शायरी में रुहेलखंड और मेरठ के इलाकों की अदबी कहन साफ-साफ झलकती है।. एक जगह जॉन एलिया लिखते हैं-
किसी से अहदो-पैमा कर ना रहियो
तू इस बस्ती में रहियो पर न रहियो
सफर करना है आखिर दो पलक बीच
सफर लंबा है बेबिस्तर ना रहियो
जॉन ने अपनी जिंदगी को बड़े बेपरवाह अंदाज से जिया. खुद को बर्बादी के चरम तक ले जाने और फिर खुद ही उन बर्बादियों के प्रचार के आरोप भी उन पर खूब लगे। ऐसे में जॉन की कलम कहती है-
है मोहब्बत हयात की लज्जत
वरना कुछ लज्जत-ए-हयात नहीं
क्या इजाजत है एक बात कहूं
वो मगर खैर कोई बात नहीं
जॉन एलिया की रचनाओं का कैनवास बहुत बड़ा है। उन्होंने जीवन और दर्शन को अपनी शायरी में बेहद गहराई से उतारा है। बेहद सरल लेकिन तीखे और तराशे हुए लहजे में जॉन अपने सामायीन को रु-ब-रू कराते हैं।
है ये बाजार झूठ का बाजार
फिर यही जींस क्यों ना तोले हम
कर के एक-दूसरे से अहद-ए-वफा
आओ कुछ देर झूठ बोलें हम
यही लहजा जॉन एलिया की शायरी-नज़्मों में हमेशा दिखाई पड़ती है और यही लहजा है कि उन्हें नकारात्मकतावादी माना जाता रहा, खुद जॉन भी इस तमगे को कबूल करते हैं-
बेदिली क्या यूं ही दिन गुजर जाएंगे
सिर्फ जिंदा रहे हम तो मर जाएंगे
हालांकि, कुछ-एक मौकों पर जॉन एलिया आशावादी भी दिखते हैं. उन्हीं की एक नज़्म का शेर है-
सुर्ख और सब्ज़ वादियों की तरफ वो मेरे साथ चल रही होगी
चढ़ते-चढ़ते किसी पहाड़ी पर अब वो करवट बदल रही होगी
जॉन एलिया उजाड़ और उचाट भावों को भी शब्दों में पिरोने वाले शायर के तौर पर जाने जाते हैं. ये बेचैनी उनके शेर में भी नज़र आती है-
बे-करारी सी बे-करारी है, वस्ल है और फिराक तारी है
जो गुज़ारी न जा सकी हमसे, हमने वो ज़िंदगी गुज़ारी है
इस तौर ना गुज़ारी जा सकने वाली ज़िंदगी में दुखों के पहाड़ हैं, न समझे जाने की टीस है, इश्क में उचाट हुआ दिल है और जीवन में जमा किए हुए गमों की बदौलत बदनामी की चाहत है. तभी तो जॉन लिखते हैं-
अब मेरी कोई ज़िंदगी ही नहीं
अब भी तुम मेरी ज़िंदगी हो क्या?
अब मैं सारे जहां में हूं बदनाम
अब भी तुम मुझे जानती हो क्या?
खुद ही अपनी बदनामी का सरे महफिल ज़िक्र करने लाले जॉन एलिया, आशिक़ाना मिज़ाज और आशिक़ी को भरपूर जीने वाले शायर रहे हैं. यूं कहिए कि जॉन ने आशिक़ी में गहरे उतर कर, डूब कर, टूटकर अपने एक-एक लफ्ज़ों को तराशा है. जॉन एलिया के बारे में कहा जाता है कि वो शायरी लिखते नहीं थे बल्कि वो जो कुछ भी बोलते थे वो खुद-ब-खुद शायरी बन जाती थी और यही शेर जॉन को जॉन एलिया बनाते हैं.
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FIRST PUBLISHED : November 8, 2023, 09:52 IST