Hindi news18 podcast: सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है/ इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यूँ है/ दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूँढे/ पत्थर की तरह बे-हिस ओ बे-जान सा क्यूँ है/ तन्हाई की ये कौन सी मंज़िल है रफ़ीक़ो/ ता-हद्द-ए-नज़र एक बयाबान सा क्यूँ है/ हम ने तो कोई बात निकाली नहीं ग़म की/ वो ज़ूद-पशेमान पशेमान सा क्यूँ है…. यूं तो नॉर्थ इंडिया खासतौर से दिल्ली एनसीआर का पलूशन इन दिनों शहरयार की इस नज़्म को अलग ही तरीके से बयां कर रहा है. लेकिन, न्यूज 18 हिन्दी के इस स्पेशल पॉडकास्ट में हम तो बात कर रहे हैं शायर शहरयार के नगमों की. ये ग़ज़ल 1978 में रिलीज़ हुई फ़िल्म ‘गमन’ में इस्तेमाल हुई थी. शहरयार जिनकी गज़लों, शायरी और नज़्मों ने दशकों तक लोगों के दिलों पर राज किया. फिल्म उमराव जान के गीत लिखने के बाद प्रसिद्धि की पराकाष्ठा छू चुके बेहद संजीदा शायर शहरयार की यह ग़ज़ल सुनिए-
कहाँ तक वक़्त के दरिया को हम ठहरा हुआ देखें
ये हसरत है कि इन आँखों से कुछ होता हुआ देखें
बहुत मुद्दत हुई ये आरज़ू करते हुए हम को
कभी मंज़र कहीं हम कोई अन-देखा हुआ देखें
सुकूत-ए-शाम से पहले की मंज़िल सख़्त होती है
कहो लोगों से सूरज को न यूँ ढलता हुआ देखें
हवाएँ बादबाँ खोलीं लहू-आसार बारिश हो
ज़मीन-ए-सख़्त तुझ को फूलता-फलता हुआ देखें
धुएँ के बादलों में छुप गए उजले मकाँ सारे
ये चाहा था कि मंज़र शहर का बदला हुआ देखें
हमारी बे-हिसी पे रोने वाला भी नहीं कोई
चलो जल्दी चलो फिर शहर को जलता हुआ देखें
भारतीय ज्ञानपीठ अवार्ड से सम्मानित किए जा चुके शहरयार जब काली रात की बेचैनी बयां करते हैं तो लगता है कि सूरज वाकई निकलने में देर कर रहा है. उदासी के घनघोर अंधेरे कुछ और गमगीन तो करते ही हैं, वक्त बदलने की जरूरत को और भी ज्यादा महसूस करवाने लगते हैं. उत्तर प्रदेश के बरेली जिले के एक मुस्लिम राजपूत परिवार में जन्मे प्रोफेसर उर्दू शायरी के दिग्गज शहरयार अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में पढ़ाते रहे और यहीं से उन्होंने रिटायरमेंट ली.
सियाह रात नहीं लेती नाम ढलने का
यही तो वक़्त है सूरज तेरे निकलने का
यहां से गुजरे हैं, गुज़रेंगे हमसे अहल-ए-वफ़ा
ये रास्ता नहीं परछाइयों के चलने का
कहीं न सबको समन्दर बहा के ले जाए
ये खेल ख़त्म करो कश्तियां बदलने का
बिगड़ गया जो ये नक्शा हविस के हाथों से
तो फिर किसी के संभाले नहीं संभलने का
ज़मीं ने कर लिया क्या तीरगी से समझौता
ख़याल छोड़ चुके क्या चिराग जलने का
वैसे क्या आप जानते हैं कि शहरयार का असल नाम था अख़लाक़ मुहम्मद ख़ान. 16 जून 1936 को जन्मे और 13 फरवरी 2012 को इस फानी दुनिया को छोड़ गए थे शहरयार. आखिर उनका यह नाम पड़ा कैसे.. इसके पीछे भी एक दिलचस्प कहानी है. दरअसल दोस्त लोगों का कहना था कि यह नाम शायरी करने वाले के साथ कुछ खास फिट नहीं बैठता.. शहरयार खुद एक इंटरव्यू में बताते हैं कि उन्होंने दोस्तों की ताकीद के बाद कुंवर नाम से लिखना शुरू कर दिया था. फिर कुछ समय बाद आजमी मरहूम ने कहा कि कुंवर तो इक्विवलेंट शहरयार होता है… तुम अपना नाम यही रख लो. बस वह दिन है और आज का दिन, हम खान साब को शहरयार के नाम से ही जानते हैं. खुद शहरयार बताते हैं कि साल 56-57 से वह इसी नाम से लिखते रहे. तो बदलते वक्त के साथ जैसे इन्होंने नाम बदला, वैसे ही अपने रचनाओं से इन्होंने लेखन को ही एक नई दिशा दे दी – फ़ैसले की घड़ी’ ऐसी ही नज़्म है :
बारिशें फिर ज़मीनों से नाराज़ हैं
और समुंदर सभी ख़ुश्क हैं
खुरदुरी सख़्त बंजर ज़मीनों में क्या बोइए और क्या काटिए
आँख की ओस के चंद क़तरों से क्या इन ज़मीनों को सैराब कर पाओगे
गंदुम ओ जौ के ख़ोशों की ख़ुश्बू तुम्हारा मुक़द्दर नहीं
आसमानों से तुम को रक़ाबत रही
और ज़मीनों से तुम बे-तअल्लुक़ रहे
रीढ़ की एक हड्डी पे तुम को बहुत नाज़ था
ये गुमाँ भी न था
एक दिन बे-लहू ये भी हो जाएगी
फ़ैसले की घड़ी आ गई कुछ करो
तितलियों के सुनहरे हरे सुर्ख़ नीले परों के लिए
आँख की ओस के चंद क़तरों से बंजर ज़मीं के किसी गोशे में
फूल फिर से उगाने की कोशिश करो
जी हां साथियो, कोशिश करने से फूल उगते ही हैं, उगेंगे ही. यह अलग बात है कि कभी थोड़ा तो कभी ज्यादा वक्त तो लगता ही है. फिलहाल वक्त हो चला है विदा लेने का. तो इस वादे के साथ पूजा प्रसाद आपसे इजाजत चाहती है कि अगली पॉडकास्ट में हम फिर मिलेंगे किसी और रचनाकार के साथ. नमस्कार.
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