1955 में जन्मी डॉ. क्षमा शर्मा एम.ए. हिंदी और पत्रकारिता में डिप्लोमा के साथ-साथ साहित्य और पत्रकारिता में पीएच.डी. भी हैं. उनकी पहली कहानी 18 साल की उम्र में प्रकाशित हुई थी. डॉ. शर्मा हिंदी बाल सहित्य में देश के वरिष्ठ लेखकों में से एक हैं और लगभग 38 साल तक बच्चों की पत्रिका ‘नंदन’ के संपादकीय विभाग से जुड़ी रहीं. डॉ. शर्मा ने बच्चों के लिए 20 उपन्यास, 16 कहानी संग्रह के साथ-साथ स्त्री विमर्श पर कई पुस्तकें भी लिख चुकी हैं. वह देश के सभी ख्यात पत्र-पत्रिकाओं के लिए नियमित लेखन करती हैं.

गौरतलब है कि डॉ. शर्मा को हिंदी अकादमी, दिल्ली द्वारा दो बार पुरस्कृत किया जा चुका है, साथ ही उन्हें बाल कल्याण संस्थान, इंडो रूसी क्लब तथा सोनिया ट्रस्ट और भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पुरस्कार सहित कई पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है. प्रस्तुत है डॉ. क्षमा शर्मा की एक प्यारी-सी बाल कहानी ‘एक रात जंगल में’…

कहानी : एक रात जंगल में
चारों ओर घना जंगल था. उसमें कचनार, गुलमोहर, पीपल, सेमल, इमली, बरगद, नीम, आम तथा और भी न जाने कितनी तरह के पेड़ थे इन पेड़ों को किसी ने लगाया नहीं था ये अपने आप ही उग आये थे. जब वसंत आने को होता तो जंगल तरह-तरह के फूलों की खुशबू से महक उठता. जिधर देखो, उधर ही चिड़ियों के मीठे गीत सुनाई देते.

जंगल में पेड़ों के अलावा शेर, चीते, हिरन, हाथी, बंदर आदि पशु भी रहते थे. गुस्सा आने पर जब शेर दहाड़ता था तो बहुत बार बंदर जमीन पर गिर पड़ते थे. जब भी कोई शिकारी जानवर पास से गुजरता, चिड़ियां शोर मचा-मचाकर बाकी जानवरों को सावधान कर देतीं.

एक बार की बात है. बहुत तेज गरमी पड़ी. जंगल में जानवरों की प्यास बुझाने वाला इकलौता बड़ा तालाब भी सूख गया. चारों ओर हाहाकार मच गया. सारे जानवर जंगल छोड़-छोड़कर भागने लगे. चिड़ियां दूर देश को उड़ गयीं. शेर-चीतों ने दूसरे जंगल में बसेरा किया. हिरन खेतों की तरफ निकल गये और उनमें से कई आसानी से लोगों द्वारा शिकार कर लिए गये.

गरमी, प्यास और भूख से हाथी भी परेशान थे. वे जिधर जाते, उधर ही उन्हें न खाने को कुछ मिलता, न पानी ही. भीषण गरमी से जंगल के बाकी छोटे-छोटे तालाब तो पहले ही सूख चुके थे. हथिनी माताएं अपने बच्चों की भूख-प्यास के कारण ज्यादा परेशान थीं.

उन्होंने हाथियों के मुखिया भोलू से कहा- “अब इस जंगल में रहना मुश्किल हो गया है. अपनी परेशानी की तो कोई बात नहीं है, मगर अपने बच्चों की परेशानी नहीं देखी जाती.”

भोलू सब बातें समझता था. उसने दूसरे हाथियों से बात की तब भोलू ने कहा- “सब हाथियों का दिन की रोशनी में जाना ठीक नहीं है, क्योंकि इससे हम पर शिकारियों की नजर पड़ सकती है. क्यों न हम शाम होने के बाद जाकर भोजन और पानी की तलाश करें. कम से कम हमारे बच्चे तो भूखे-प्यासे नहीं रहेंगे.”

यह बात दूसरों की भी समझ में आ गयी. वे शाम होने का इंतजार करने लगे. धीरे-धीरे शाम होने लगी. पक्षी अपने घरों को लौटने लगे. सूरज डूब गया. तब हाथी धीरे-धीरे चलेवे एक सीध में चल रहे थे. बच्चों पर किसी तरफ से कोई हमला न हो, इसके लिए बच्चे हाथियों के पेट के नीचे चल रहे थे. जब वे चलते-चलते रुकने की कोशिश करते तो दूसरे हाथी उन्हें सूंड़ से आगे ठेल देते. इसमें कुछ भी तेरा-मेरा नहीं था. बच्चे सभी की मिली-जुली जिम्मेदारी थे. हाथी आगे बढ़े तो बढ़ते ही गये

आसमान में चांद निकल आया था. अब कोई भी उन्हें दूर से देख सकता था. एक हथिनी मां ने परेशान होकर चांद की ओर इशारा करते हुए कहा- “वैसे तो जब रोशनी की जरूरत होती है तो तू बादलों में छिप जाता है और इस वक्त तू हमें मुसीबत में डालने के लिए भरपूर चमक रहा है. तुझे पता नहीं कि रात में शिकारी हम पर घात लगाए रहते हैं? अकेले हों तो भाग भी लें. आज तो बच्चे हमारे साथ हैं और कई दिन से कुछ खाया भी नहीं है. भूख और प्यास से जान निकली जा रही है.”

रास्ते में जो भी घास-पात दिखाई देता वे उसे खाते जा रहे थे, लेकिन हथिनी की बात सुनने की फुरसत भला चांद को कहां थी? वह तो बादलों के समुद्र में कभी इधर तैरता तो कभी उधर. ऐसा लगता था जैसे वह उनके साथ लुका-छिपी खेल रहा था.

हाथी चलते-चलते एक गांव के नजदीक पहुंचे, तभी उन्हें बहता हुआ झरना दिखाई दिया और उनकी खुशी का कोई ठिकाना न रहा. वे झरने के पास जा पहुंचे. वहां उन्होंने पेट भरकर पानी पिया. फिर पास के पेड़ों की टहनियां तोड़ उनके पत्ते खाने लगे. तभी हाथी के एक बच्चे का खेलने को मन कर आया. वह कभी इधर भागता तो कभी उधर. मां ने डांटा- “यह नयी जगह है. कहीं गिर-गिरा गये तो हाथ-पैर तोड़ लोगे? चुपचाप खड़े रहो.”

मगर हाथी का बच्चा कहां मानने वाला था ! वह तो मस्ती में था. वह झरने के पानी में तैरकर दूर तक जाना चाहता था. जब वह किसी भी तरह से नहीं माना तो उसकी मां ने दूसरे हाथियों से कहा कि अब जल्दी से जल्दी यहां से चलना चाहिए. हाथियों को बात समझते देर न लगी क्योंकि बच्चे की शरारतों को वे भी बहुत देर से देख रहे थे. वे फौरन जंगल की ओर वापस चल दिए.

बच्चे ने यह देखा तो वह अपनी नन्ही-सी पूंछ हिलाता सबसे आगे दौड़ पड़ा. उसकी मां उसके पीछे दौड़ी. उसे डर था कि कहीं इस भाग-दौड़ में बच्चे को चोट न लग जाये

अब बच्चा आगे-आगे और मां पीछे-पीछे. उन्हें भागते देखकर दूसरे हाथी भी उनके पीछे दौड़ पड़े. अपने पीछे सारे हाथियों को भागते देख बच्चा बुरी तरह से घबरा गया. वह जोर से चिंघाड़ते हुए एक तरफ दौड़ा और एक कम गहरे सूखे कुएं में जा गिरा. उसकी मां का तो कलेजा मुंह को आ गया. सारे हाथी वहां इकट्ठे होकर कुएं में झांकने लगे. मगर क्या करें?

उधर कुएं में पड़ा बच्चा डर के मारे जोर-जोर से चिंघाड़ रहा था. उसकी चीख-पुकार सुनकर गांव वालों की नींद भी टूट गयी और वे उठकर बैठ गये. कुछ लोग लाठियां और लालटेन लेकर उधर ही भागे. इतने हाथियों को एक साथ खड़े देखकर वे घबरा गये. कुछ लोगों ने पास जाकर देखा तो वे बात समझ गये

उनमें ललुआ नामक एक लड़का बहुत साहसी था. वह अपने घर जाकर एक चारपाई, मोटी रस्सी, और सीढ़ी ले आया. रस्सी का एक सिरा उसने कुछ लोगों को पकड़ाया. फिर सीढ़ी लगाकर वह कुएं में उतरा. हाथी के उस छोटे-से बच्चे को बड़ी मुश्किल से उसने चारपाई पर लिटाया. तब चारपाई पर बच्चे को रस्सी से बांध दिया. उसके बाद ऊपर आकर उसने सीढ़ी को भी ऊपर खींच लिया. फिर कई गांव वाले उस रस्सी को खींचने लगे. यह डर था कि कहीं रस्सी बीच में ही न टूट जाये और बच्चा चारपाई समेत धड़ाम से नीचे जा गिरे. मगर ईश्वर की कृपा से रस्सी टूटी नहीं और बच्चा सही-सलामत बाहर आ गया.

हाथियों ने अब तक मनुष्यों की क्रूरता के बारे में सुना था. लेकिन बच्चे को बचाने के लिए तो मनुष्य देवता की तरह आये थे. हथिनी मां उन्हें धन्यवाद देना चाहती थी, मगर उसके मुंह से शब्द नहीं निकले. उसकी आंखों से आंसू बहने लगे ललुआ और दूसरे गांव वाले वापस चले गये. हाथी भी जंगल की ओर लौटने लगे. वैसे भी सवेरा होने वाला था.

इस बात को बहुत दिन बीत गये.

बारिश के मौसम ने जंगल में अकाल और सूखे को खत्म कर दिया. हाथी भी अब कभी-कभार ही जंगल से बाहर निकलते थे.

एक बार ललुआ शहर में अपना सामान बेचकर वापस लौट रहा था. शहर से चलते-चलते ही शाम हो गयी थी जंगल के बीच पहुंचा तो रात हो गयी. वह जल्दी से जल्दी गांव पहुंच जाना चाहता था. जंगल में चोर-डाकुओं का भी डर था.

तभी ‘ललुआ को एक कड़कदार आवाज सुनाई दी- “कौन है बे! जहां है वहीं ठहर जा. जरा-सा भी आगे बढ़ा तो जान की खैर नहीं.”

डर के मारे उसकी जान सूख गयी किस बुरे वक्त में घर से निकला था ! उसने आगे बढ़ना चाहा तो पांव जैसे वहीं रुक गये. उसने रुपयों की पोटली झट से पास वाली झाड़ी में फेंक दी.

तभी लालटेन पकड़े बड़ी-बड़ी मूंछों वाले दो लठैत उसके सामने आ खड़े हुए.

ललुआ समझ गया कि आज जान की खैर नहीं.

एक ने कड़ककर कहा- “शहर से जो कुछ लाया है, निकाल !”

जेब में जो कुछ था ललुआ ने निकालकर उन्हें दे दिया. उनमें से दूसरा बोला- “बस, जेब में ये दो-चार रुपये? जेबों को तो ऐसे टटोल रहा था जैसे हमें हाथी निकालकर दे देगा.”

हाथी का नाम सुनते ही ललुआ को वही हाथी का बच्चा याद आ गया जिसे उसने कुएं से निकाला था.

वह उसके बारे में सोच ही रहा था कि एकाएक कुछ पक्षी शोर करने लगे. एक डाकू ने घबराकर कहा- “भैया, लगता है कोई जानवर आसपास ही है.” जानवर से उसका अर्थ किसी शेर चीते से था. वे दोनों चौकन्ने हो गये. ऐसा लगा मानो झाड़ियों के पीछे से दबे पांव कोई हमला करना ही चाहता है. जो डाकू अब तक ललुआ को धमका रहे थे, डर के मारे कांपने लगे. अपनी लाठियां संभालते हुए वे भाग खड़े हुए. हां, भागते-भागते यह जरूर कह गये– “बड़ी अच्छी किस्मत पाई है बच्चू जो हमारे हाथ से बच गये. अब शेर से भी बचो.”

ललुआ को भी लगा कि शेर अब आया कि तब आया. वह दौड़कर एक पेड़ पर चढ़ गया. उसे लग रहा था कि रात अब जंगल में ही बितानी पड़ेगी. पेड़ पर बैठे-बैठे ही उसे झपकी आने लगी. अचानक पेड़ों की टहनियां टूटने की आवाज से वह संभलकर बैठ गया. महसूस हुआ कि शेर जैसे पेड़ पर ही चढ़ आया हो.

तभी ललुआ की नजर नीचे पड़ी तो वह चकित रह गया. नीचे एक हथिनी अपने नन्हे से बच्चे के साथ खड़ी थी ललुआ ने नन्हे बच्चे को झट पहचान लिया. यह वही बच्चा था जिसे उसने कुछ दिन पहले कुएं से निकाला था. उसकी सूंड़ पर अब भी घाव का बड़ा-सा निशान था. उसकी समझ में नहीं आया कि हथिनी को यह कैसे पता चला कि वह मुसीबत में है.

ललुआ नीचे उतरा तो हथिनी ने धीरे से उसे प्यार से छुआ. ललुआ ने झाड़ी में से अपनी पोटली उठा ली. एकाएक हथिनी ने सूंड़ से उठाकर उसे अपनी पीठ पर बिठा लिया और उसके गांव की तरफ चल दी. नन्हा बच्चा भी साथ-साथ चलने लगा.

हथिनी ने उसे गांव के नजदीक छोड़ा और वापस चली गयी. ललुआ देर तक मां-बेटे को जाते देखता रहा.

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