आधुनिक और समकालीन हिंदी कविता में अनेक बड़े कवि हुए हैं किन्तु मुक्तिबोध के बाद इन कवियों में कुंवर नारायण की पीढ़ी में सबसे ज्यादा विद्रोही कवियों में श्रीकांत वर्मा के बाद धूमिल और कैलाश वाजपेयी का स्थान आता है. दुर्भाग्य है कि उनकी आवाज को ठीक से सुना नहीं गया या अनसुना किया गया. वे सातवें दशक के कवियों और आठवें दशक के कवियों के बीच एक स्तंभ की तरह थे जिनकी कविता में समूचे विश्व में क्षीण और क्षय हो रही मानवता के प्रति एक बौद्धिक विक्षोभ मिलता है. उनकी कविता निज की पीड़ा या सुख-दुख का आख्यान नहीं है, वह भारतीय व पाश्चात्य जन जीवन के बीच विकलता और संत्रास के देखे सुने अनुभवों का संवेदी रूपांतर है. उन्हें अनदेखा करने का प्रयत्न इस तरह किया गया कि आठवें दशक के कवियों के कोलाहल के बीच उनकी आवाज अनसुनी रह जाए. किन्तु कैलाश वाजपेयी किसी सातवें दशक या आठवें दशक के परिसीमन के कवि नहीं है. वह तो उनका जिया हुआ कालखंड भर है. वाजपेयी तो भविष्य के कवि हैं जो पृथ्वी का कृष्णपक्ष देख लेने वाले और दिनों दिन घटते भविष्य को देख यह कह सकने का साहस करने वाले कवि थे कि ‘भविष्य घट रहा है’. धूमिल के साथ ही कैलाश वाजपेयी जैसे विचारवान कवि ने अकविता के अराजक उल्लास की वल्गाओं को हतप्रभ करने का बीड़ा उठाया और कविता मानवीय संवेदना, प्रज्ञा और प्रत्यभिज्ञा की जमीन पर अपनी नई पहचान बना सकी.
कभी आधुनिक हिंदी कविता के नाराज तेवर के कवि श्रीकांत वर्मा ने लिखा था: “संभव नहीं है कविता में वह सब कह पाना जो घटा है बीसवीं शताब्दी में मनुष्य के साथ”. कैलाश वाजपेयी इसी परंपरा के कवि हैं जिन्होंने कविता में वह सब कहने की चेष्टा की है जो बीसवीं शताब्दी के मनुष्य के साथ घटा है. आज जब दुनिया तीसरे विश्वयुद्ध के मुहाने पर खड़ी है और मनुष्य अपनी ही प्रजाति का हत्यारा बन बैठा है, मुक्तिबोध, धूमिल, श्रीकांत वर्मा और कैलाश वाजपेयी जैसे कवि बरबस याद आते हैं. श्रीकांत वर्मा ने लिखा है, ‘कांपते हैं एक एक हाथ/ पृथ्वी की एक एक सड़क पर / भाग रहा है मनुष्य / युद्ध पीछा कर रहा है.’ बीसवीं शताब्दी की इसी बहुविध पीड़ा को कैलाश वाजपेयी ने अपने छह दशकों के रचना संसार में व्यक्त किया है. कोई भी कवि इसलिए बड़ा नहीं होता कि वह अपने समय को अपनी कविताओं में मूर्त करता है, उसका रचनासंसार अपने समय व समाज का दर्पण होता है बल्कि वह इसलिए बड़ा होता है कि उसके पीछे कितनी बड़ी कवि परंपरा है. उसकी आवाज में कवियों की सदियों की आवाजें समायी हुई हैं. आदि कवि वाल्मीकि, व्यास, कालिदास, भास, भवभूति, तुलसी, सूर, कबीर की कवि परंपरा हमें यह जताती है कि कोई कवि अपनी कविताओं में युगसत्य का वहन करता है तो वह सदियों का कवि समय को लांघ कर अपने समय का सत्य लिखता है.
कैलाश वाजपेयी का कविता में अवतरण उस समय हुआ जब देश को आजादी हासिल हुए लगभग एक दशक बीत चुका था. हालांकि किसी भी स्वतंत्र हुए देश में आमूलचूल परिवर्तन के लिए एक दशक का समय बहुत ज्यादा नहीं होता तथापि एक दशक कम भी नहीं होता. उच्चादर्शों का हामी कवि जब आजादी के ध्येय के साथ आजाद भारत की तस्वीर का मिलान करता है तो पाता है कि यह आजादी जिन मंतव्यों के लिए हुई थी वे कहीं दूर जा छिटके हैं. देश की वर्तमान छवि से इसका कोई लेना-देना नहीं है; और वह इस मलिन तस्वीर को देख कर निराश होता है. निराशा, हताशा, नाउमीदी की यह कविता कोई साठ के दौर में पहली बार नहीं लिखी जा रही थी. जिसने भी अपने समय का सत्य लिखा उसे भी युगसत्य को पहचानने में हताशा व नाउमीदी से गुजरना पड़ा. कबीर जो अपने समय में प्रतिरोध की एक बड़ी आवाज थे, लिख रहे थे, “मैं केहिं समझावहुँ ये सब जग अंधा। पांडे कौन कुमति तोहिं लागी। हम न मरब मरिहै संसारा। हिरना समझ बूझ बन चरना।” तब धार्मिक फिरकापरस्ती कोई कम न थी. पीर औलिया की भी जात देखी जाती थी. कबीर की भी देखी गयी. उनके मरने पर खूब तमाशा मचा. पर कबीर उस वक्त की सत्ता के मनसबदार न थे. न हिंदू व मुसलमानों में किसी एक के ताबेदार. उनकी कविताएं उस वक्त की धार्मिक फिरकापरस्ती व घृणा के प्रति एक चेतावनी की तरह हैं.
कवि और लेखक कैलाश वाजपेयी के घर में उनका पुस्तकालय.
कुछ कवियों में परंपरा के प्रति लगाव नहीं होता. इसके प्रति रामधारी सिंह दिनकर जैसे कवि ने सावधान किया है. वे ‘परंपरा’ शीर्षक कविता में लिखते हैं: “परम्परा जब लुप्त होती है/ सभ्यता अकेलेपन के/दर्द मे मरती है/ कलमें लगना जानते हो/ तो जरुर लगाओ/मगर ऐसी कि फलो में अपनी मिट्टी का स्वाद रहे/ और ये बात याद रहे/ परम्परा चीनी नहीं मधु है/ वह न तो हिन्दू है, ना मुस्लिम.” इस तरह हर कवि की अपनी परंपरा होती है. कैलाश वाजपेयी अपनी कवि परंपरा में कबीर, कुंभनदास, नागार्जुन, मुक्तिबोध, श्रीकांत वर्मा, धूमिल, रघुवीर सहाय और राजकमल चौधरी से जुड़ते हैं. समय पर पड़ते तीखे दंश का जैसा निर्वचन कैलाश वाजपेयी की कविताएं करती हैं वह अपने समय में कबीर, नागार्जुन, मुक्तिबोध, श्रीकांत वर्मा, धूमिल व रघुवीर सहाय की देन है, उनका काव्यफलक व कवि चिंता एक साथ वैश्विक व स्थानिक है.
बीसवीं शताब्दी का क्षत-विक्षत चेहरा
कैलाश वाजपेयी के सम्मुख बीसवीं शताब्दी का क्षत-विक्षत चेहरा रहा है. 1917 की बोल्शेविक क्रांति प्रगतिशील शक्तियों के अभ्युदय का समय है. किन्तु इसी सदी ने दो-दो विश्वयुद्ध देखे. वियतनाम, क्यूबा, ईराक की तबाही देखी. अफ्रीकी देशों में पेट और भोजन का समीकरण तय करती आबादी देखी. लेनिनग्राड में एक साथ घेरकर मारे गए हजारों रूसी युवाओं को एक ही जगह पर पंक्ति दर पंक्ति दफन होते और ढेरों औरतों को चुपचाप आंसू बहाते हुए देखा, इससे भी पहले कन्सेंट्रेशन कैंप में मारे गए यहूदियों के प्रति नफरत देखी. जापान को तबाह करने वाली आणविक शक्तियों का अट्टहास देखा. भारत में विभाजन का भयावह दृश्य देखा व दो कौमों के बीच नफरत की दीवार उठते देखी जो आज भी एक घाव की तरह मनुष्यता पर मौजूद है. भाईचारे का संदेश देने वाले इसी देश में 84 का कत्लेआम देखा. विश्व भर में पूंजी व शस्त्रों की होड़ देखी. मनुष्य की निस्सहायता व तनहाई देखी. अनेक देशों को अन्न से ज्यादा शस्त्र व बारूदों पर बजट निर्धारित करते देखा.
सुधा मूर्ति, सूर्यनाथ सिंह और मतीन अचलपुरी सहित 21 लेखक बाल साहित्य पुरस्कार से सम्मानित
ऐसे परिदृश्य में भी कुछ कवि अपनी कविता को सुगठित और मर्यादित बनाने के प्रति सचेष्ट थे. वे किसी अलक्षित उच्चादर्श के कवि थे. प्रकृति के अनुगायक बन कर जीना चाहते थे. एक सुविधाजनक काव्योपकरण के बीच वे सुरक्षित महसूस करते थे. देश दुनिया में मनुष्यता के साथ क्या घटित हो रहा है, इसके बारे में जानने की उन्हें कोई जिज्ञासा या बेचैनी न थी. आखिरकार अकविता का विद्रोह साठ के दौर में अराजक जरूर सिद्ध हुआ पर उसके हेतु अकारण न थे. आजादी का यदि कोई मकसद था तो देश आजादी पाने के बाद किसी दूसरी राह पर चल पड़ा था. भ्रष्टाचार के नए-नए तंत्र ईजाद होने लगे थे. लाल फीताशाही, न्यायिक प्रक्रिया, पुलिस व्यवस्था, स्थानीय प्रशासन की इकाइयां सवालों के घेरे में थीं. ‘रागदरबारी’ जैसी कृति प्रशासन की इसी पोलपट्टी का नतीजा थी जिसे उसी व्यवस्था में काम करने वाले अधिकारी ने लिखा. सत्ता का हिस्सा बन कर उसकी आलोचना करना आसान नही होता. किन्तु श्रीलाल शुक्ल ने ऐसा किया. लेखकों ने जोखिम उठाए.
कवि किसी रघुनाथ का चाकर तो हो सकता है पर वह किसी सत्ता का चाकर नहीं हो सकता. कैलाश वाजपेयी सौभाग्य से सत्ता के निकट रहे किन्तु इस नैकट्य के बावजूद उन्होंने उसकी आलोचना करनी नहीं छोड़ी. सदैव अपने कवि विवेक पर भरोसा किया. उनके समकालीन रहे कवि केदारनाथ सिंह में यह प्रतिरोध बहुत झीना-झीना है और वह सत्ता को लेकर तो शायद नहीं है, मानवीय नियति और पारिस्थितिकी को लेकर उनकी चिंताएं सामने आती हैं.
विक्षोभ की नई इबारत
कैलाश वाजपेयी उससे आगे जा कर कड़ी शब्दावली में पेश आते हैं. वे विक्षोभ की एक नयी इबारत गढ़ते हैं. यह सिलसिला ‘संक्रांत’ से ही शुरु होता है और ‘देहांत से हट कर’ व ‘तीसरा अंधेरा’ से गुजरते हुए ‘महास्वप्न का मध्यांतर’ तक पहुंचता है. ‘सूफीनामा’ से वे अपनी राह बदलते हैं. एक कबीराना मिजाज उनके भीतर से उमगता है. निरभय निरगुन गाऊंगा -की तर्ज पर वे सचाई की राह पर चलते हैं. ‘पृथ्वी का कृष्णपक्ष’ परीक्षित की गाथा अवश्य है किन्तु वह हम सबके भीतर छिपे परीक्षित की गाथा भी है. ऐसा करते हुए वे कभी क्षुब्ध होते हैं तो लगता है कवि एक हताशा से घिर का ऐसा बोल रहा है कि हमें अब किसी भी व्यवस्था में डाल दो (जी जाएंगे). वह राजधानी जैसी क्रांतिकारी तेवर की कविता लिखता है जिसे व्यवस्था विरोध मान लिया जाता है और उसे प्रतिबंधित कर दिया जाता है. क्योंकि वह जीवन की व्याकृति की बात करता है. झूठे नारों और खुशहाल सपनों से लदी बैलगाड़ियों की बात करता है. जिसे क्षोभ होता है कि वह जैसे बुद्ध, नीत्शे, मार्क्स, भर्तृहरि, कृष्ण और कीर्केगार्द की मुरदा पोशाक पहन कर वर्षों से राजधानी की सीमेंटी दूरियों पर घूम रहा है. वह साहस आजादी की व्यर्थता को देख कर कहता है, एक सिल की तरह गिरी है स्वतंत्रता और पिचक गया है पूरा देश. इस कविता की अंतर्वस्तु से धूमिल की पटकथा मेल खाती है, समकालीन होने की हद तक धूमिल में विद्रोह का जो तेवर है, वह पहले के मुक्तिबोध, श्रीकांत वर्मा व कैलाश वाजपेयी आदि कवियों की सरणि पर चलता दीखता है,
‘हंस अकेला’ की भूमिका में अशोक वाजपेयी ने यह लक्ष्य किया है कि कैलाश वाजपेयी उन थोड़े से हिंदी कवियों में से एक थे जिनकी विश्व दृष्टि ब्रह्मांड-बोध से हमेशा जुड़ी थी. उनकी कविता निरे संसार तक महदूद नहीं रही. उसके भूगोल में हमेशा ब्रह्मांडगोल ने संयमित किया. (हंस अकेला, पृष्ठ9) वे आगे कहते हैं कि हमारे समय के तमाम फरेबों को देखने-पहचानने और उनके पार सच्चाई को जानने की एक ईमानदार कोशिश, इन कविताओं में देखी जा सकती है. कहीं न कहीं, यह अविवक्षित विश्वास है कि इस चौतरफा तबाही से कविता शायद हमेंबचा सकती है। वे इन कविताओं में आत्माभियोंग भी लक्षित करते हैं। पर यह भी कहतेहैं कि सभी पर एक तरह का उदास उजाला है जिसे खुद अपनी बनायी धुंध भी कह सकतेहैं। यह उदास उजाला इन कविताओं को अपने समय की तबाही का एक शोकगीत जैसा भी बना देता है. (वही, पृष्ठ 11 ) कितनी विडंबना है कि आज के अगाध उजाले और आधुनिक समय को वह उदास उजाले के रुप में परिभाषित कर रहा है. ऐसा इसलिए कि उजाले के नेपथ्य में जो अंधेरा व्याप्त है उसे केवल कवि देख सकता है.
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यह वह कवि है जिसने सदैव अपने आत्म में तो झांका पर उसकी कोई आत्मकथा नहीं बनाई. वह आत्मकथा उसकी कविताओं में ही छन-छन कर आती रही. बिल्कुल उसी तर्ज पर जैसा येवंतुश्को ने कहा था, कवि की कविता ही उसकी आत्मकथा है, बाकी सब फुटनोट. कितनी वेदना से वे कहते हैं, ”वर्षों पहले जिस घर में मैं जन्मा था/ वह घर अब वहां नहीं है/ जिस नदी के तट पर मेरा बचपन बीता/ प्रदूषण खा गया उसकी नीलाई/ पचहत्तर से ज्यादा पतझर झेल चुकी मेरी यह काया/ सारी सारी रात नींद को तरसती है/ यादों के घन घन्नाते हैं/ महाकवि निराला, सुकवि संत पंत, मां सी महादेवी, दिनकर, बच्चन, नागार्जुन, मितभाषी अज्ञेय/ हँसती आंखों वाले डॉ. माचवे/ और सीढ़ियों पर धूप में दमकते खो गए रघुवीर सहाय खो गए/ सभी शब्दसाधक, मनीषी, वरदपुत्र सरस्वती मां के / जिन्होंने स्नेह दिया, छॉंह दी/ जिन्होंने नई पौध को/ कहां चले गए, एक नितांत असहनीय निर्वात छोड़ कर।” (हंस अकेला, आत्मकथ्य-2, पृष्ठ 134) —-और तब लगता है कि जिस संक्रांत में कवि ने लिखा, मेरा आकाश छोटा हो गया है/ मुझे नींद नहीं आती. वह कोई अकवितावादी फैशन में लिखा गया वाक्य नहीं था, यह उस कवि परंपरा का दाय है जिसके चलते कवि कबीर को भी नींद नहीं आती थी. दुखिया दास कबीर है जागै अरु रोवै — की नियति ही दरअसल कवि की नियति है. आज यदि कोई ज्ञानेन्द्रपति या देवीप्रसाद मिश्र- सरीखा कवि अपने कवि विवेक को अप्रतिहत रखता हुआ सत्ता की ढपली बजाने को अभिशप्त नहीं है तो यह उस कवि परंपरा के दाय का निर्वाह है जिसे पूर्वज कवि नई पीढ़ी के कंधे पर उत्तराधिकार की तरह सौंपते आए हैं.
परंपराबोध और कवि का प्रदेय
कैलाश वाजपेयी अपने मिजाज में अलग किन्तु परंपराबोध के कवि हैं. उन्होंने एक कवि रुप में अपना वरण किया है तो इसके पीछे कवियों से आंतरिकता से प्रतिकृत होना है. जब अज्ञेय कहते थे, ‘मैं गाता हूँ अनघ सनातनजयी’ तो लगता है कविता एक अविच्छिन्न परंपरा है. महाभारत एक है, व्यास कई. कविता एक है, कवि कई. लोग परंपरा को प्राय: निंदित करते हैं. उसके पिछड़ेपन पर हँसी उड़ाते हैं. किन्तु कहा गया है कि पुरानी हर चीज खराब नहीं होती और न नई हर चीज अच्छी. अच्छे लोग उनका परीक्षण कर व्यवहार में लाते हैं. कवि परंपरा की सदियों की यात्रा को निहारता हुआ यह कवि अपनी कविताओं में कहां खड़ा है, किन मानवीय मूल्यों के लिए उसने कविता की राह चुनी है, यह देखना उसे सुदीर्घ कवि परंपरा में ऑंकना होगा.
कैलाश वाजपेयी भले ही वामपंथी न थे पर विचारों से प्रगतिशील थे. परंपराओं में उनकी आस्था थी. साधु -संतों दार्शनिकों के बीच उनका उठना-बैठना था. जो बातें परंपरा से मनुष्यता ने सीखी हैं वह सीख कवि भी देता है पर किसी नैतिक प्रतिकथन के रूप में नहीं. अपने जीवन के उत्तरार्ध में वे छोटी कविताएं लिखने लगे थे. यह सिलसिला ‘हवा में हस्ताक्षर’ से ही शुरु हो गया था. ‘हंस अकेला’ में ‘डर’ कविता में वे धर्म को जहर की संज्ञा देते हैं. सच कहें तो जिसने धर्म को अफीम कहा होगा, कितना सच कहा है. क्योंकि सारी दुनिया में धर्म और नस्ली भेदभाव ने मनुष्यता के सामने अनेक संकट खड़े किए हैं. हमारे देश में ही जो भाई-चारा आजादी से पहले था, वह विभाजन के बाद उत्तरोत्तर क्षीण होता गया है. यद्यपि भारत विविधताओं का देश है. विविध धर्मों जातियों मतावलंबियों का देश है. गए दशकों में धर्म पर बहसें ज्यादा हुई हैं उसे मानवीय बनाए रखने पर कम. कैलाश वाजपेयी की ‘डर’ कविता देखें —
डर से बेखबर कोई नहीं
क्योंकि डर कोई खबर नहीं
मज़हब की एक सिफत यह भी है
उस जैसा
कोई ज़हर नहीं। (हंस अकेला, पृष्ठ 40)
माता भूमि: पुत्रोहं पृथिव्या: यह हमारी संस्कृति रही है. वेदों में प्रकृति की उपासना के सूक्त है. हमारी संस्कृति प्राणि प्रजातियों से लेकर प्रकृति के तमाम उपादानों को लेकर समावेशी है. ऐसे में कवि पृथ्वी का दोहन करने वाली शक्तियों के प्रति अपनी क्षुब्धता का इजहार करता है :
हमने तुम्हें इतना निचोड़ा
कहीं का न छोड़ा
हमें माफ करना धरती मॉं
कई बार कोख से कुलघाती भी जन्म लेते हैं. (हंस अकेला, ‘ धरती मॉं’ पृष्ठ 54)
मरने मारने की संस्कृति की ओर बढ़ती प्रवृत्ति पर वे लोगों पर तंज करते हैं. वे कहते हैं जो अच्छा है हमने महारत हासिल कर ली है उसे मारने में. हमने गांधी को मारा, ईसा को मारा, सुकरात को मारा, ईश्वर को तो दिन रात मारते ही रहते हैं. यह और बात है कि ईश्वर मरता नहीं हम ही मरते चले जाते हैं. (वही, पृष्ठ 88) उन्होंने ‘संक्रांत’ से लेकर ‘हंस अकेला’ तक इंसानियत की कविताएं लिखी हैं. मरणधर्मा संसार में यह जो जीते जी मारने की प्रवृत्ति बढ़ी है, पूंजीवादी ताकतें विकासशील व गरीब देशों को आपस में भिड़ा कर अस्त्रों का जखीरा बना देना चाहती हैं, इस के विरुद्ध वाजपेयी की कविता दुनियाभर की हिंसक प्रवृत्तियों की निंदा करती है. उनके भीतर जलते हुए विश्व की धुआं-धुआं होती नियति की राख है जो एक सच्चे कवि के लिए बहुत तकलीफदेह होती है. अचरज नहीं कि तमाम निषेधों, असहमतियों और प्रतिरोधी मिजाज के बावजूद इस कवि में एक नैतिक ताकत है जिसका सबूत उसकी ‘गेहूं’ शीर्षक कविता है :
ओ मेरे अन्नदाता/ मैं हरा गेहूं दूध भरा
मेरी यह विनती है जब मैं पक जाऊं
और बने रोटी
यह मेरी काया
मैं किसी शराबी अघाए अय्याश की आंत में न जाऊं
किसी फटेहाल थके पेट की जलती भट्ठी में
स्वाहा होता हुआ
तृप्ति की धुन गुनगुनाऊं
वही मोक्ष होगा मेरे सुनहरे विकास का । (हवा में हस्ताक्षर, पृष्ठ 17)
कविवर कैलाश वाजपेई के अध्ययन कक्ष में उनकी पुत्री विदुषी डॉ. अनन्या वाजपेई के साथ लेखक डॉ. ओम निश्चल.
यह एक अपरिग्रही कवि की कविता लगती है. जैसे मनुष्य का कोई धर्म होता है, वैसे ही अन्न का भी धर्म होता है. उसका भी मन होता है. उसकी निर्जीवता में भी सजीवता का उल्लास बोलता है. कवि परिवर्तन का हामी तो होता है पर जंगल काट कर, मिट्टी को बांझ बना कर, हवा को जहरीली बना कर नहीं. वह तथाकथित विकास को प्राकृतिक संपदाओं के विनाश का कारक नहीं बनने देना चाहता. ‘नवक्रांति’ कविता परंपरा की इसी सीख का प्रकथन है :
तुम अगर परिवर्तन के पक्षधर हो
मिट्टी से शुरू करना
जो बांझ हो रही है।
धान से शुरू करना
जो गोरे पंजों के चंगुल में जा रहा।
वृक्षों से शुरू करना
जिनका वध हो रहा है बेरहमी से।
वायु से शुरू करना
जिनका यौवन रोज लुट रहा
यही सब तो हो तुम
अपनी जड़ों की पड़ताल के बिना क्रांति कहां? (हवा में हस्ताक्षर, पृष्ठ 13)
एक सच्चा कवि अपनी परंपरा का सम्मान करता है, उससे अपने लिए जीवन मूल्य आचार विचार आयत्त करता है और अपनी यादगार विरासत नई पीढ़ी को सौंप कर जाना चाहता है. कवि का यह कहना कि अपनी जड़ों की पड़ताल के बिना क्रांति कहां, अपनी परंपरा से जुड़ कर नए प्रस्थान बिंदु की ओर बढ़ चलने का आह्वान है.
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FIRST PUBLISHED : November 11, 2023, 10:19 IST