रूपाली की नयी नयी शादी हुई थी और अपनी शादी के बाद वो पति के साथ दिल्ली से मेरठ आ गई थी. इस क्रम में, रूपाली का सिर्फ़ अपना शहर और अपना मायका ही नहीं छूटा था, नौकरी भी उसे छोड़नी पड़ी थी. पति की पोस्टिंग मेरठ में थी और ससुराल लखनऊ में. पति के साथ रह सके, विवाहित जीवन सुखमय हो, इसके लिए उसने मन से, बिना किसी दबाव के, नौकरी छोड़ने का फ़ैसला लिया था. पर बिना नौकरी के अब दिल्ली की लड़की का मन मेरठ या लखनऊ में लग जाये इसके लिए कुछ जतन करने भी ज़रूरी थे. ऐसे में कुछ जतन रूपाली ने ख़ुद किए और कुछ जतन रूपाली की सास ने भी किए.
रूपाली की सास को बाग़बानी का बड़ा शौक़ था. उनके बाग़ीचे, कैक्टस और बोनसाई, फ्लावर शोज़ में, इनाम पाया करते थे. इसलिए वो फ़ोन पर से ही रूपाली को बाग़बानी के लिए प्रेरित करतीं. विंटर फ्लावर्स के नाम, क्यारियों में किस तरह ऊँचाई और रंग के हिसाब से पौध लगायी जाती है, सब बताना शुरू किया. इधर मेरठ में रूपाली अपनी नयी और छोटी सी गृहस्थी जमाने की कोशिश कर रही थी और उधर सास, भविष्य की बहू को तराशने में उसको लांग डिस्टेंस सबक़ देने में लगीं थीं. उन्हीं दिनों की बात है. एक दिन फ़ोन की घंटी बजी. कॉल लखनऊ से सास का था…
“बिटिया क्या कर रही हो?”
“किताबों का कॉर्टन खोला है अम्मा, आज किताबें और कैसेट व्यवस्थित करने का प्लान है.”
“दिवाली आने वाली है बेटा, जल्दी सब निपटा लो.”
“जी माँ, एक दो दिन में सब व्यवस्थित हो जाएगा. फिर घर सजाने पे लगूँगी.”
उधर से आवाज़ आयी,
“बेटा, पुलिस की नौकरी है और मेरठ वाले, अति मिलनसार. मिलने वाले बहुत आयेंगे, पर थोड़ा सचेत रहना.”
रूपाली को लगा, अम्मा भला ये किस से सचेत रहने को कह रहीं हैं!! ख़ैर, अम्मा ख़ुद ही तुरंत बोलीं, “देखो बेटा जो भी आएगा, ख़ाली हाथ नहीं आएगा. अब ये तुम दोनों पर है कि कैसे लोगों को गिफ्ट के लिये मना करोगे.”
नयी शादी, पहली दिवाली और सास का निर्देश कि किसी से भी गिफ़्ट नहीं लेना है. पुलिस की नौकरी में अपनी इस पहली दिवाली पर गिफ़्ट ना लेने की परंपरा को स्थापित करना मुश्किल तो था परंतु करना तो था ही. जिस बात के बारे में नयी बहू ने अभी सोचा भी ना था, जिस तरफ़ उसका ध्यान ही नहीं गया था, बल्कि उसे तो अभी इसका इल्म ही नहीं था, सास से उस बात की चर्चा सुन रूपाली भी चिंतित हो उठी. पूछ बैठी, “अम्मा क्या ये दिवाली मिलन भी पुलिस में एक समस्या है.”
सास बोलीं, “बेटा याद रखना, जिसके साथ बराबरी का बरत सको या जिसके साथ पहले से ही संबंध हैं, जीवन में सिर्फ़ उनसे ही गिफ़्ट लेना. जिनको जानते नहीं हो और जो पद देख कर आज मिलने आ रहे हैं, उनसे गिफ़्ट कभी ना लेना. अगर इस बार ले लिया तो सदा के लिए ऋणी हो जाओगे.”
सास की ये नसीहत सुनते ही रूपाली को अपनी नानी की कही एक पुरानी बात याद आ गई. रूपाली की नानी कहा करती थीं, “मुँह खाता है तो, नज़रें शर्माती हैं”, यानी किसी का दिया अगर खा लिया तो याद रखना, ख़ता तो मुँह की होगी पर आँखें, हमेशा के लिए शर्मायेंगी, झुक जायेंगी.”
इधर रूपाली को नानी की बात याद आयी और उधर सास ने चलते चलते ये कह कर फ़ोन रखा, “बिटिया याद रहे इस पहली दिवाली, पुराने मिलने वालों का ध्यान रखना. नयों से सावधान रहना. पहली दिवाली से ही तुम्हारी हर आने वाली दिवाली की नींव पड़ेगी. पुलिस की नौकरी में नयी जगह नयी पोस्टिंग पर, अधिकारी बाद में पहुँचता है, उसकी रेपुटेशन पहले पहुँच जाती है.”
इस बातचीत से रूपाली के ज्ञानचक्षु खुल गये थे. दरअसल उसे अभी अंदाज़ा ही नहीं था कि दिवाली मिलना भी पुलिस की नौकरी में समस्या का रूप भी ग्रहण कर सकती है. उसने मन ही मन सासु माँ का धन्यवाद किया. और किताबों केसटों में रम गई.
आयी दिवाली आयी
दिवाली आते आते रूपाली का घर भी व्यवस्थित हो गया था और कुछ एक सदाबहार पौधे भी गमलों में सज गये थे. घर के आगे की फुलवारी में उसने सासु माँ के निर्देश अनुसार सबसे पीछे हॉलीहॉक, फिर स्वीट पीज़, आगे मार्ग्रेट, डहलिया, पेपरफ़्लॉवर, डबल पॉपी, सफ़ेद बर्फ़ सा कैंडीटफ़्ट, पीला कैलिंडुला और फिर रंग बिरंगे पिटुनिया, और पैंसी… सब की नन्हीं नन्हीं पौध लगवा दी थी. क्यारियाँ अच्छी लग रहीं थीं.
दिवाली के दिन रिवाजों के अनुसार, रूपाली ने ख़ुशी से पकवान बनाये. पर जैसा होता है, पुलिस वाले त्योहारों पे ही सबसे ज़्यादा बिजी होते हैं, सो रूपाली के पति भी ऐन पूजा के वक्त ही घर लौटे. वो घर क्या आये, उनके आते ही मिलने वालों की लाइन लग गई. उस लाइन को देख सासु माँ का मंत्र याद आ गया. पर तब तक देर हो चुकी थी. रूपाली ने पति अरुण से माँ का निर्देश तो साझा किया ही नहीं था. अब वो क्या करे. सब मेहमानों और मुलाक़ातियों के सामने अरुण से कैसे कहे. पर तभी उसने ध्यान दिया कि उनके घर जो भी आ रहा है उसके हाथ में या तो एक तुलसी का पौधा है या फिर गेंदे का एक पौधा. अब तुलसी और गेंदे के पौधे को वो ना भी कैसे कहती।. रूपाली ने सभी आने वालों का अच्छे से आदर सत्कार किया. मौक़ा देख कर नव दंपति ने अपनी पूजा की. घर के स्टाफ के साथ दिये जलाये. पकवान खाये. सबको वक़्त से विदा किया. एकांत के जब कुछ पल मिले, दोनों पति पत्नी आराम से अकेले में हाथ में कॉफ़ी ले, बरामदे में बैठ गये.
अब रूपाली से रहा ना गया. पूछ बैठी. “आपसे मैं कहना भूल गई थी. अम्मा का फ़ोन आया था. उन्होंने कहा था, दिवाली पे लोग उपहार ले कर आयेंगे. उन उपहारों को लेना मत. पर आज तो सिर्फ़ रमाकान्त भैया ही उपहार लाए बाक़ी तो सब पौधे ही लाए. ऐसा कैसे हुआ??”
अरुण ने मुस्कुराते हुए कहा, “रूपाली, बहू के रूप में तुम्हारी पहली दिवाली है. मेरी पुलिस अधिकारी बनने के बाद ये चौथी दिवाली है. तुमने माँ की बात पहली बार सुनी थी, इसलिए भूल गईं. पर मेरी माँ तो मुझे सालों से ये शिक्षा देती आ रही हैं. इसलिए दिवाली से पहले ही मैं ज़िले में नोटिस निकलवा देता हूँ कि सब पुलिस वाले तुलसी जी या गेंदे के पौधे के आदान प्रदान से ही दिवाली मिलन करें. सो इस तरह उपहारों से बचाव भी हो जाता है और पौधे तो ख़ैर हर वक़्त घर की शोभा बढ़ाते ही हैं. रही बात रमाकान्त भैया की, वो तो रिश्ते में भाई हैं. उनसे लेना देना तो उम्र भर का है.”
और इस तरह रूपाली ने अपनी पहली दिवाली की सीख हमेशा के लिए गाँठ बाँध कर पल्ले में रख ली. सच कहते हैं, नयी गृहस्थी में अगर संचालक की भूमिका पत्नी की होती है तो उसी गृहस्थी की मार्गदर्शक, सासु माँ होती है.
धन्यवाद
