भारत उत्सवों, पर्वों और सांस्कृतिक वैभव का देश है. भारत के कण-कण में जीवन का आनन्द झलकता है. उत्सव का वेग मिलता है और प्रेम-सौहार्द्र का प्रकाश मिलता है. जीवन की सरसता और आकर्षण इसी से तो है. कार्तिक मास को उत्सवों का महीना कह सकते हैं. दशहरा समाप्त होते ही दीपावली के दीपों की आभा से मानव-मन दीप्त हो जाता है. दीपावली कार्तिक मास के अमावस्या की काली रात को मनाई जाती है. अमावस्या की रात में प्रकाश का पर्व मनाने का यह अनूठा स्वरूप हमेशा आदर योग्य रहा है.
“तमसो मा ज्योर्तिगमय” से अभिसिक्त भाव में मानव अपने अंदर ज्योति को अनुभूत करता ही है. भगवान श्रीराम के संघर्षों की कथा का भी साक्षी हो जाता है. संघर्ष के बाद जीवन रामराज्य तुल्य हो जाता है. दीपावली के स्मरण करने मात्र से अनेक प्रकार के विचार मन में दौड़ लगाने लगते हैं. मन बच्चों जैसा चंचल हो जाता है. तब नए-नए कपडे़, मिठाई, खिलौने व पटाखे याद आते हैं. तब अपने घर में की जाने वाली साफ-सफाई याद आने लगती है. तब बड़ों में समृद्धि की देवी मां लक्ष्मी की आराधना कर कुछ पाने की आकांक्षा रहती है. महिलाएं इसकी तैयारियों के विषय में चिंतन में लीन हो पूरे परिवार को एक सूत्र में पिरोकर घर-बाहर की सफाई व खुशहाली में व्यस्त हो जाती हैं.
दीपावली त्योहार किसी एक दिन का न हो कर त्योहारों की एक शृंखला के रूप में मनाया जाता है. वैसे तो दीपावली कार्तिक कृष्ण अमावस्या की रात्रि को जगमग करने का त्योहार है, किन्तु इसका प्रारम्भ धन-त्रयोदशी के दिन से ही हो जाता है.
दीपावली की परम्परा भारत के अलावा सम्पूर्ण विश्व में है. यह अलग बात है कि अन्य देशों में यह खानापूर्ति मात्र है, मस्ती का माध्यम है, सेलेब्रेशन का बहाना है; पर भारत में परम्परा है, अध्यात्म है, श्रद्धा है, आस्था है, आकांक्षा है और धार्मिक मान्यता का आधार है. दीपावली एक रात का उत्सव नहीं, पांच रातों का समूह है. उन पांचों दिन-रात धन्वन्तरी, हनुमान, लक्ष्मीजी, राजा बलि, गोवर्धन और चित्रगुप्त की जयन्ती का उत्सव मनाया जाता है. इसके बाद छठ पूजन और देव पूजन आदि की परम्परा है.
ऐसा नहीं है कि दीपावली केवल भावनाओं और आस्था पर ही आधारित है, अगर देखा जाए तो यह पूर्णतः वैज्ञानिक भी है. दीपावली में हम अग्नि की पूजन करते हैं. अग्नि की ज्वाला वातावरण को शुद्ध करती है. अग्नि को मानव का सबसे प्राचीन और प्रथम मित्र माना जाता है. आग के आविष्कार से मानव जीवन में क्रान्तिकारी विकास हुआ. आग ने मानव को भोजन और सुरक्षा दोनों दिया. परम्परा के अनुसार, दीपावली के शाम गाय के घी में कम-से-कम सोलह दीपक जलाकर दीप-दान किया जाता है. इतना ही नहीं, इसके पहले घर, बाग, कुआं, तालाब, नदी-घाट आदि की भी सफाई की जाती है. यह सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान और पर्यावरण की शुद्धि का संकल्प है. शायद यह गौरवशाली परम्परा दुनिया के अन्य देशों में नहीं है.
त्रेतायुग में चैत्र शुक्ल नवमी पुष्य नक्षत्र में दिन में ठीक बारह बजे ‘कर्क लग्न’ में भगवान श्रीराम का जन्म अयोध्या में हुआ. चौदह वर्ष वनवासी होने के बाद राम लंका जीतकर जब वापस अयोध्या आए तब घर-घर घी के दीप जलाए गए. उस दिन कार्तिक माह की अमावस्या थी. घनघोर अंधकारमय रात्रि, घनघोर संघर्ष के बाद सत्य की असत्य पर, न्याय की अन्याय पर, पुण्य की पाप पर, दानवता की मानवता पर विजय हुई. विजय के प्रतीक के रूप में दीपावली भारत सहित दुनिया के कई देशों में नगर-नगर, डगर-डगर मनाई जाती है.
दीपावली की कथा केवल राम से ही नहीं जुड़ी है. द्वापर युग में भगवान कृष्ण ने सोलह हजार कन्याओं और अनेक राजाओं को दुर्दांत राक्षस की कैद से मुक्त कराया था. शास्त्रों में मिलता है कि उस दिन भी दीपावली थी. इतना ही नहीं, आज से हजारों वर्ष पूर्व सम्राट विक्रमादित्य ने तीन लाख शकों और हूणों को परास्त कर के भारत की धरती से बाहर खदेड़ा था. सौभाग्य से उस दिन भी दीपावली थी. वर्णन मिलता है कि तब से दीपावली दोगुने उत्साह से मनाई जाने लगी. इतना ही नहीं, जैन धर्म का मानना है कि उनके चौबीसवें तीर्थंकर आदेश्वर परमात्मा महावीर जैन का जन्म भी कार्तिक की अवामस्या को ही हुआ था. दीपावली का संबंध सिख धर्म से भी माना जाता है. सिखों के गुरु हरगोविंद सिंह जहांगीर के समय में कई वर्षों तक ग्वालियर के किले में कैद रहे. उन्होंने बादशाह जहांगीर को पर्चा दिया. तत्पश्चात बादशाह ने उन्हें आजाद करने का हुक्म दे दिया, मगर हरगोविंद सिंह ने कहा कि ‘जब तक सभी कैदियों को नहीं छोड़ा जाएगा, तब तक मैं भी नहीं जाऊंगा.’ कहते हैं कि बादशाह को विवश होकर सभी कैदियों को छोड़ना पड़ा. और कैद से रिहा होकर जिस दिन हरगोविंद सिंह अमृतसर पहुंचे, उस दिन भी दीपावली थी. इसी तरह महात्मा बुद्ध से भी दीपावली का संबंध माना जाता है. दीपावली के दिन ही प्रसिद्ध समाज सुधारक व आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती का निर्वाण दिवस भी मनाया जाता है.
इस प्रकार देखें तो केवल धर्म के आधार पर ही नहीं, दीपावली का संबंध ऐतिहासिक घटनाओं से भी रहा है. दीपावली असत्य पर सत्य की विजय का पर्व है. दीपावली उत्साह और जोश का पर्व है. इसके ऐतिहासिक, धार्मिक और आध्यात्मिक पक्ष के साथ वैज्ञानिक महत्त्व भी है. उपनिषद कहता है – ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’. अर्थात् अंधकार से प्रकाश की ओर चलो. दीपक आशा का प्रतीक है. दीपक नव-चेतना और नव-गति का प्रतीक है. दीपक के प्रकाश में स्वच्छता एवं सत्यता का आभास होता है. दीपक से भ्रांति, भय और भ्रष्टता का नाश होता है. भारतीय मनिषियों ने दीपक में अग्निदेव का स्थान माना है. दीपक में प्राण संचालन और चेतना का वास माना जाता है. दीपक को पवित्रता का प्रतीक मानने के साथ-साथ शुभ कर्मों का साक्षी माना जाता है.
दीपावली का पर्व ऐसे समय पर आता है, जब मौसम वर्षा ऋतु से निकलकर शरद ऋतु में प्रवेश करता है. इस समय वातावरण में वर्षा ऋतु में पैदा हुए विषाणु एवं कीटाणु सक्रिय रहते हैं. घर और पास-पड़ेस में दुर्गन्ध व गंदगी भर जाती है. अतः दीपावली में घर एवं ऑफिस की साफ-सफाई व रंगाई-पुताई इस आस्था एवं विश्वास के साथ की जाती है कि श्रीलक्ष्मी जी यहां वास करें. इस विश्वास का वैज्ञानिक आधार है कि जब आदमी स्वस्थ रहेगा और एक सुखद वातावरण में काम करेगा तभी अच्छी तरह से परिश्रम करेगा और धन कमा पाएगा. लक्ष्मी जो कि सुख-शांति की देवी है, उनका स्वागत आज का ही नहीं किसी भी समय-काल का मानव करता रहा है. “धनात् धर्मम्, तत् सुखम्.” धन है तो जीवन में उत्सव है. सच्चाई भी तो यही है.
दीपावली के आगमन पर मेरा अनुभव कुछ विचित्र होता है. अब जब भी दीपावली आती है, मैं अपनी युवा अवस्था में चला जाता हूं. तब की पूरी दीपावली अपने घर पर मनाया हूं. दीपावली आने के तीन-चार दिन पहले से ही घर-द्वार और उसके आगे-पीछे की सफाई में सब लग जाते थे. तब सबसे आनंददायक होता था कठ-बक्सा साफ करना. उसकी सफाई में मेरी सहभागिता अवश्य होती. कारण यह था कि मैं अपने भाई-बहनों में सबसे छोटा होने के कारण बक्से में अंदर घुस जाता और दोनों बक्सों की जमकर सफाई करता. सफाई के दौरान जो कोने में पड़े सिक्के मिलते, उसमे किसी का हिस्सा नहीं होता था. वे सिक्के मेरे लिए दिवाली पर लक्ष्मी जी की कृपा होते. उसके बाद ही द्वार पर कहीं बन आए गड्ढों के लिए मिट्टी ढोना, फूल-पौधों की साफ-सफाई, बस वहीं से ‘दीप जलाओ, दीप जलाओ, आज दिवाली आई रे’ की शुरुआत हो जाती.
अब घर से बाहर नौकरी करते वक़्त दीपावली की अनुभूति कुछ अलग हो गई है. लगता है कि आज तो राम जी अपनी भार्या को स्वतंत्र करा कर घर आये थे, हम तो स्वंय ही परतंत्र है. तब, जब कभी भैया घर नहीं आ पाते तो माँ समय-कैकेयी को कोसते हुए फफकती और गाती रहतीं- ‘केकई बड़ा कठिन तूं कइलू, राम के बनवा भेजलू ना.’ – तब मैं भी उनसे छुपकर उनके दर्द भरे गीतों को सुनता और पलकों से टपकने को तैयार आंसुओं को पोंछकर कहीं दूर हट जाना चाहता. वे गीत आज के दिन फिर याद आते हैं. याद आती है कठ-बक्सा की सफाई के लिए बाबूजी की पुकार, किसी कोने से सिक्का पाना, दीदी का मांगना, मुझे मना करना, भैया का भाभी के साथ आना और तब अपने कुनबे की विराटता पर बाबूजी के गर्व से चमकते मस्तक और मां के मुख-मंडल पर दीप्त अमृत-दूध की ताकत.
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FIRST PUBLISHED : November 12, 2023, 15:18 IST
