डॉ. आशुतोष का असमय जाना, सूना हो गया हिंदी साहित्य का एक बड़ा स्कूल

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कोलकाता हिंदी समुदाय में बेहद चर्चित और समर्पित अध्यापक और लेखक डॉ. आशुतोष आज हमसे जुदा हो गए. पिछले दिनों वे अपने घर की रसोई गैस के अचानक लीक करने से लगी आग में झुलस जाने के कारण नहीं रहे. बताया जाता है कि वे सुबह-सुबह रसोई में चाय बनाने गए किंतु गैस लीक से लगी आग में झुलस गए अपने बेटे को बचाने में पूरी तरह से लपटों में घिर गए थे और लगभग 90 प्रतिशत जली हालत में अस्पताल ले जाए गए थे. उनके बेटे गौरव का निधन हादसे के अगले दिन ही हो गया था और आज उनके निधन की सूचना मिली.

डॉक्टर आशुतोष कोलकाता के हिंदी जगत में जाने पहचाने हस्ताक्षर रहे हैं. प्रगतिशील चेतना के कवियों लेखकों के साथ उनका गहरा संबंध रहा है. उन्होंने भागलपुर से शिक्षा दीक्षा ग्रहण की तथा प्रेसीडेंसी कॉलेज और कोलकाता विश्वविद्यालय में कुछ दिनों अंशकालिक शिक्षक के रूप में पढ़ाया भी. अंततः विद्यासागर कॉलेज में हिंदी के अध्यापक रहे तथा हाल ही में सेवानिवृत हुए थे. डॉक्टर आशुतोष हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार में भी तन-मन से संलग्न थे. डॉक्टर अमरनाथ के एक उल्लेख के अनुसार, 1997 में वे डॉक्टर अमरनाथ द्वारा गठित हिंदी सेवी संस्था ‘अपनी भाषा’ के साथ भी जुड़ गए थे तथा इन दिनों में इस संस्था के उपाध्यक्ष थे.

अभी हाल ही में आशुतोष ने अपने अनेक कवि लेखक मित्रों के साथ कई पूर्वज लेखकों रामविलास शर्मा निराला, नंद दुलारे वाजपेई और पंडित देवीदत्त शुक्ल इत्यादि के गांव ऊंच गांव सानी, मगरायर आदि का दौरा किया था. उन्होंने रायबरेली में आयोजित ‘बतरस’ संस्था द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में शिरकत की थी.

1999 में जब मैं इलाहाबाद बैंक के वरिष्ठ राजभाषा प्रबंधक के रूप में कोलकाता में पदस्थ हुआ तो वहां के साहित्यिक वातावरण में अनेक लेखक मित्रों के साथ डॉ. आशुतोष से भी मिला करता था. उनसे बातें हुआ करती थीं. वह बहुत ही सौम्य और कम बातें करने वाले लेखक थे और अक्सर किसी भी बात का वे मुस्कुरा कर जवाब दिया करते थे. अक्सर किसी न किसी साहित्यिक संगोष्ठी में उनसे भेंट हो जाती थी. साहित्यिक आंदोलनों में भी उनकी गहरी भागीदारी थी. पिछले दिनों आशुतोष जी रांची गए. लेखकों के साथ बैठकी की तथा कुछ दिनों पहले दिल्ली भी आए थे तथा कई मित्र लेखकों के अलावा हिंदी के जाने-माने उपन्यासकार संजीव से भी भेंट की थी.

मैं समझता हूं कि बहुत से लेखक लिख-लिख कर कागद कारे करने और पुस्तकों के प्रकाशन से बहुत विमुख होते हैं. कहीं न कहीं यही बात डॉक्टर आशुतोष के साथ भी थी. वे जुझारू और समर्पित हिंदी सेवक और लेखक तो थे लेकिन प्रकाशनों से दूर रहते थे और लिखने में भी थोड़ा आलस्य बरतते थे. लेकिन उनके मार्ग निर्देशन में कोलकाता विश्वविद्यालय और विद्यासागर कॉलेज में अनेक शोध कार्य संपन्न हुए हैं. उन्होंने छात्रों को पर्याप्त मार्गदर्शन दिया और लगातार हिंदी की युवा रचनाशीलता के साथ उनका जुड़ाव बना रहा. कोलकाता बांग्ला भाषा और साहित्य का गढ़ है लेकिन बांग्ला भाषा के साथ जिस भाषा का गहरा सानिध्य है वह हिंदी ही है. हिंदी के लेखक समकालीन बांग्ला लेखको के संपर्क में रहते हैं और बांग्ला लेखन और उसके साहित्यिक आंदोलन से हिंदी को भी सक्रिय उजास मिलती है. वे बांग्ला के लेखकों के संपर्क में भी रहते थे.

आशुतोष जी दुनिया में इजराइल और फिलिस्तीन, हमास के बीच हो रही युद्ध गतिविधियों से काफी आहत थे और इस बारे में अपने फेसबुक पेज पर कुछ न कुछ लिखते रहते थे. वहां के मारे जा रहे बच्चों और हो रहे नुकसान के दर्दनाक छायाचित्र भी वे लगाते रहते थे और कहीं न कहीं इस दुनिया के बदलने की उम्मीद भी पाले हुए थे.

उन्होंने कुछ दिन पहले ही एक टीप में ‘द टेलीग्राफ’ के संपादकीय पेज का अंश उद्धृत करते हुए लिखा था: “इस सदी के पहले बीस वर्षों में, संघर्षग्रस्त क्षेत्र में लगभग 2,200 फिलिस्तीनी बच्चे और 140 इजराइली बच्चे मारे गए. निर्दोषों का नरसंहार जारी है: मौजूदा शत्रुता से पहले 2022 में 45 और इस साल 44 फिलिस्तीनी बच्चे मारे गए थे. इस अवधि में आठ इजरायली बच्चों की मृत्यु हो गई. युद्ध के चार सप्ताह बाद, गाजा में 3,800 से अधिक फिलिस्तीनी बच्चे मारे गए और 1,200 लापता बताए गए, इसके अलावा 31 इजरायली बच्चे मारे गए और कम से कम 20 को हमास ने बंदी बना लिया. ये मौतें सीधे तौर पर शत्रुतापूर्ण कार्रवाई के परिणामस्वरूप हुईं. भुखमरी, महामारी, चिकित्सा सहायता की कमी और दीर्घकालिक चोटों से मरने वालों की गिनती करना जल्दबाजी होगी. और जिन बच्चों की दुनिया सचमुच उनके चारों ओर ढह रही है, उनके साथ की गई मानसिक हिंसा वास्तव में असाध्य है.”

एक अन्य टीप में लिखा है: “दुनिया भर में जगह लेने के लिए मारामारी है. मुझे भी एक शांत निरापद जगह तलाश है. जहां मनमाने ढंग से रह सकूं. बस इतनी सी ख्वाहिश है.”

कौन जानता था कि वह ऐसी किसी शांत निरापद जगह की तलाश में है जहां से जाकर वे फिर लौट कर नहीं आ पाएंगे.

वे इन दिनों लोकतंत्र में आ रही मनुष्यता की लगातार गिरावट से बहुत चिंतित थे. दिनोदिन मनुष्य और मनुष्य के बीच बढ़ती असमानता उन्हें विचलित करती थी. वे चाहते थे कि लोकतंत्र के ढांचे में कुछ बदलाव आना चाहिए जिससे मनुष्य की नियति परिवर्तित हो. उसके हालात में बेहतरी आए. फेसबुक पर उन्होंने इस आशय की टीप दर्ज की है कि, “हमें खुद को मई 2024 तक के समय को भारत के लोकतंत्र के नाम कर देना चाहिए. लोकतंत्र बचेगा, तो आदमी बचेगा और तभी देश भी बचेगा.”

अचानक घर की रसोई में हुई गैस लीक हादसे में अपने प्रिय बेटे के साथ उनका भी आग में झुलस जाना और फिर न रहना एक परिवार के लिए बहुत गहरी क्षति तो है ही, हिंदी के जीवित जागृत समुदाय के लिए उनकी अनुपस्थिति एक गहरे शोक का विषय है. पिछले दिनों कोरोना में हमने बहुत सारे लेखकों, कवियों, कलाकारों को खोया और लगातार हमारे बीच से ऐसे लेखक विदा होते जा रहे हैं जिनकी अभी समाज को बहुत जरूरत है. ऐसे में डॉक्टर आशुतोष का असामयिक निधन समूचे हिंदी जगत के लिए हिंदी से भी समुदाय के लिए एक गहरी क्षति है. उनके निधन पर उनके प्रति हार्दिक श्रद्धांजलि.

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