वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप की जयंती पर विशेष आलेख
“वीर शिरोमणि परमप्रतापी महाराणा प्रताप के पूर्वज”
प्रस्तुति :ओम प्रकाश चौहान,
Rt.Sr Journalist, Greater Noida
क्षत्रियों के गौरव महाराणा प्रताप की जयंती पर अधिकतर वक्ताओं एवं लेखक उनके जीवन के विषय में केवल वे ही बातें कही जिन्हे मुगल शासक अकबर के दरबारी लेखकों ने अकबरनामा और आईने-अकबरी में प्रचारित कर लंपट अकबर को महान घोषित करने का दुष्प्रचार किया था, और बहुत वीरता से लड़कर महाराणा प्रताप को हल्दीघाटी के ऐतिहासिक युद्ध में पराजित होकर जंगलों में घास की रोटियां खाते लिखा था। ये सभी बातें हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप से पराजित सभी मुगल सेनापतियों एव मुगल शहजादे की खीझ उतारने के लिए अकबर ने प्रचारित कराई थी जो स्वयं किसी भी युद्ध में महाराणा प्रताप के सामने जाने का साहस न कर सका था। हल्दीघाटी के इस युद्ध में महाराणा प्रताप ने सारी मुगल सेना और सेनापतियों को परास्त करके गौरवशाली विजय प्राप्त की थी। महाराणा प्रताप ने तो अकबर के आधे मुगल साम्राज्य के बदले उसके संधि प्रस्ताव को भी स्वीकार नहीं किया था।
इस परम प्रतापी वीर महाराणा प्रताप के अति उज्ज्वल वंश ( शिशोदिया कुल तथा सूर्यवंश) में उनके अनेक महावीर पूर्वज हुए थे। महाभारत के युद्ध के बाद श्री राम के कई वंशज ( लव के माध्यम से) हस्तिनापुर की सेना में उच्च पदों पर आमंत्रित किए गए थे। बाद में सम्राट जनमेजय के पांचवे वंशज सम्राट निचाकरा के समय हस्तिनापुर के गंगा की बाढ़ मे डूब जाने पर कुरू राजधानी को कौशांबी में ले जाया गया था। तब लव के वंशज ये सूर्यवंशी वीर गंगा पर करके मालिन तथा रवाशा नदियों के मध्य में राज्य स्थापित कर लिए थे। कालांतर में इस वंश के वीर गुहा सिंह ने यहां से राजपूताना में जाकर नागदा में राज्य स्थापित कर लिया था और गुहिलियोत साम्राज्य की स्थापना की थी। इस साम्राज्य के आठवें शासक परम वीर बप्पा रावल थे जिनका जन्म युधिष्ठिर संवत 3870 ( विक्रमी संवत 770; 713 ई) में हुवा था। इनके पिता रावल महेंद सिंह इस साम्राज्य के सातवें ( श्रीराम के वंशजों में अस्सी वे ) शासक थे। रवाशा नदी के क्षेत्र से जुड़े होने के कारण इन्होंने रावल उपनाम को अपनाया था । उस क्षेत्र के अन्य अनेक वीर क्षत्रियों ने स्वयं को रावा (रवा), रावत, राई, राव तथा रोहिल घोषित किया था। पड़ोसी राज्य के एक षड्यंत्र में रावल महेंद्रसिंह की हत्या हो जाने पर राजकुमार बालक बप्पा रावल ने अपना बचपन नागदा के पर्वतीय क्षेत्र के जंगलों में स्थानीय भीलों के बीच में बिताया। वही पर ऋषि हरित इनके गुरु बने जिन्होंने इन्हे सभी अस्त्र शस्त्रों तथा घुड़सवारी में पारंगत कर अजय योद्धा बना दिया था। कुछ समय उपरांत बेलि, देव आदि भीलों के साथ बप्पा रावल ने नागदा त्याग कर चितौड़ की ओर प्रस्थान किया क्योंकि मेवाड़ नरेश मानमोरी इनके मामा थे। उस समय विदेशी आक्रमणकारी अत्याचारी बिन कासिम ने सिंध नरेश वीर दाहिर का छल से वध करके उनकी दोनो पुत्रियों का अपहरण कर लिया था और फिर 735 ई में मेवाड़ पर अचानक आक्रमण कर दिया था। बप्पा रावल ने मेवाड़ से थोड़े से सैनिकों को लेकर इस दुर्दांत अक्रमणकारी की विशाल सेना को परास्त कर बिन कासिम को सिंधु के पश्चिमी तट की ओर भगा दिया था तथा भारत की सीमाओं से बाहर खदेड़ कर पुनः भारत पर आक्रमण न करने की शपथ दिलाई थी। इस अभियान में बप्पा रावल गजनी तक गए और वहा के तत्कालीन शासक सलीम को परास्त करके अपने अधीन राजा घोषित किया था।उसके बाद 300 वर्षो तक कोई विदेशी अक्रांता भारत पर आक्रमण करने का साहस नहीं कर सका था। उनकी इस वीरता से प्रभावित होकर उनके मामा ने उन्हे अपना उत्तराधिकारी घोषित करके 735 ई में चितौड़ का राजा बना दिया था। एकलिंग जी के सेवक के रूप में उनका प्रतिनिधि राजा बनकर बप्पा रावल ने कंधार, करासान, तूरान, ईरान तथा इस्पकान तक विजय पाई थी और इन्हे अपने अधीन राजा बना दिया था। इस कारण इन्हें ” हिंदवा सूरज” तथा “चक्रवर्ती सम्राट” की उपाधि दी गई थी। मेवाड़ साम्राज्य में सबसे ज्यादा शक्तिशाली एवम प्रतापी नरेश बप्पा रावल को माना जाता है। इन्होंने चित्तौड़ में एकलिंग जी के प्रसिद्ध मंदिर की स्थापना की थी। 19वर्षो तक न्यायपूर्वक शासन करके इन्होंने मेवाड़ का राज्य अपने बड़े पुत्र रावल खुमान को सौप दिया था और स्वयं परमात्मा शिव के भक्त संन्यासी हो गए थे। इनके वंशजों राणा रतन सिंह, महाराणा हमीर सिंह, महाराणा लाखा, महाराणा कुम्भा, महाराणा संग्राम सिंह तथा महाराणा प्रताप ने अनेक बार विदेशी आक्रमणकारियों को परास्त करके भारत की सीमाओं से बाहर खदेड़ दिया था। महाराणा कुम्भा के पौत्र ( तथा महाराणा रायमल के पुत्र) महाराणा संग्राम सिंह थे जिनका जन्म अप्रैल 1484ई पर मालवा में हुवा था। इन्होंने चितौड़ तथा मेवाड़ पर 1508 ई से 1528 ई तक शासन किया था। उस समय तक अफगान सिकंदर लोदी दिल्ली के सिंहासन पर बैठ चुका था।महाराणा संग्राम सिंह ने उसे तथा उसके पुत्र इब्राहिम लोदी को अनेक बार परास्त किया था। उन्हे बारंबार परास्त कर महाराणा संग्राम सिंह ने 1525 ई से 1527 ई की अवधि में विदेशी आक्रमणकारी क्रूर बाबर को कई बार परास्त कर भारत को सीमाओं से बाहर खदेड़ दिया था।इन अनेक युद्धों में महाराणा संग्राम सिंह को 80 घाव लगें थे, उनकी एक आंख तथा एक हाथ बेकार हो चुके थे तथा एक पैर में तीर लगने से वे लंगड़ा कर चलने लगें थे परंतु पोस्टुनो तथा अक्रमणकारी मुगलों के विरुद्ध हर युद्ध में वे विजयी होकर लौटे थे। बाबर के साथ सन 1528 ई में खनवा के प्रसिद्ध ऐतिहासिक युद्ध में भी महाराणा की विजय निश्चित हो गई थी जब मुगल सेना के पैर उखड़ गए थे और महाराणा ने बाबर को प्राण दान देकर भारत की सीमाओं से बाहर जाने का आदेश दे कर पुनः आक्रमण न करने का निर्देश दे दिया था परंतु तभी उनका एक सेना नायक सिलहादी 30000 सैनिकों के साथ भारी उत्कोच लेकर बाबर से जा मिला था। इस कारण क्षुब्ध महाराणा संग्राम सिंह युद्ध करते घोड़े से गिरकर मूर्छित हो गए थे। इस युद्ध के बाद बाबर ने भारत में जघन्य नर संघार करवाया था तथा अनेक हिंदू मंदिरों एवम शिक्षाकेंद्रो को नष्ट कर दिया था।
महाराणा संग्राम सिंह के बाद उनके पुत्र उदय सिंह चित्तौड़ के राजा हुए थे। सन 1557ई में उदय सिंह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र क्षत्रिय कुल गौरव वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप चितौड़ के राजा बनाए गए थे जो शिशोदिया वंश के 54 वे नरेश थे।
महाराणा प्रताप के इन सभी यशस्वी पूर्वजों की वीरता एवम शोर्य के यह गाथा एवं जानकारी गढ़वाल विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति बीएस राजपूत द्वारा लिखी गई पुस्तक पुस्तक, ” Historical, Cultural and Scientific Heritages of India” से ली गई है, जिसका प्रकाशन प्रगति प्रकाशन मेरठ द्वारा किया गया है।
आभार : हिस्टोरिकल कल्चरल एंड साइंटिफिक हेरिटेज ऑफ़ इंडिया- लेखक: बीएस राजपूत