“मुझे गाओ, तुम्हारा जीवन उल्लास से भर जाएगा. दुख क्या है, मैं नहीं जानता. मेरे आज़ाद सुर आनंद का उत्सव मनाते हैं. इस प्रेम लीला में आपका स्वागत है.” ये सुरमई पुकार है ‘तिलक कामोद’ की. वो राग, जिसमें संगीत के वादी-संवादी स्वर मिलकर सतरंगी आसमान खोलते हैं. आप चंचल-चपल उर्जा के साथ प्रसन्नता की उड़ान भर सकते हैं. इस आलम में अगर आप ये नगमा गुनगुना बैठें- “हमने तुमको प्यार किया है जितना, कौन करेगा उतना” तो यकीन मानिये, आप तिलक कामोद के साथ सफ़र कर रहे हैं. इस राह में ये गीत भी आपके ओठों पर सवार हो सकता है- “तुम्हारे बिन जी ना लगे घर में, बलमजी तुमसे मिला के अंखियां’
राग की दुनिया बेहद निराली है. इनकी रगों में हमारे ख़यालों का खून बहता है. तिलक कामोद के आँचल में भी अहसासों का ऐसा ही आकाश छाया है. लोक की दुनिया में इसका मटियारा रंग ठुमरी, चैती, दादरा के छंदों में खूब छलकता है. याद करिये 1956 में बनी फि़ल्म ‘जागते रहो’ का गाना- “ठंडी-ठंडी सावन की फुहार”. शैलेन्द्र की शब्द रचना और सलिल चौधरी की धुन. आवाज़ आशा भोसले की. प्रेम के संयोग-वियोग के बीच झूलते इस तराने में तिलक कामोद के स्वर रूह के तारों को छू जाते हैं. संगीतकार जयदेव की उस रचना को कैसे भूल सकते हैं जिसे 1973 में बनी फि़ल्म ‘प्रेम पर्वत’ के ज़रिये बेहिसाब सुना गया. डोगरी-हिन्दी की प्रख्यात कवियित्री पद्मा सचदेव ने जिस गहरी संवेदना में डूबकर इस गीत को लिखा, उतनी ही हार्दिक और मधुर धुन जयदेव ने बनाई. बोल हैं- “ये नीर कहाँ से बरसे”. यहाँ लता मंगेशकर के भीगे कंठ में यादों का दरिया बह निकलता है.
संगीत मनीषियों ने जब तिलक कामोद की गहरी छानबीन की तो इसकी सुरीली तासीर जानकर इसे खमाज थाट का राग कहा. इसका वादी स्वर है रे (ऋषभ) और विभिन्न आवृत्तियों के साथ रे के पास लौटता पंचम इस राग को मीठा और वाचाल बनाता है. तिलक कामोद शुद्ध स्वरों का हिमायती है इसलिए चंचल और खिलंदड़ है. परम आज़ादी का उत्सव मनाता अपनी ही सुन्दर छवि में निखरा-उजला राग. मौसिक़ी के पंडित-उस्ताद इसे संपूर्ण राग मानते हैं. मशहूर सितार वादक पंडित रविशंकर, बाँसुरी वादक पंडित हरिप्रसाद चौरसिया, गान विदुषी किशोरी आमोणकर सहित अनेक अग्रणी कलाकारों का यह पसंदीदा राग रहा है. पंडित मल्लिकार्जुन मंसूर मगन होकर इस राग को गाते थे. उनके कंठ से तिलक कामोद को सुनना सदा ही अलौकिक होता. उनकी इस गान मुद्रा के कुछ बिंब कविताओं में भी आए हैं. रविशंकर की सितार पर कामोद के झरते हरसिंगार श्रोताओं के मन में अभी भी खिलते हैं. इस राग का सुंदर प्रयोग उन्होंने ‘गोदान’ में किया. ये फि़ल्म बनी थी 1963 में. कथा सम्राट मुंशी प्रेमचन्द्र के प्रसिद्ध उपन्यास को रूपहले परदे पर सत्यजीत रे ने उतारा था. गीतकार अनजान का नगमा “हिया जरत रहत दिन रैन” गाते हुए परदे पर नमूदार होते हैं राजकुमार. पंडित रविशंकर ने इस गीत के सौंधे अहसासों में तिलक कामोद के सुरों को सुना. यूँ एक मौज़ूं सी धुन में नगमा साँसें लेने लगता है.
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के संगीत-समंदर में तिलक कामोद की चंचल लहरें अक्सर चहकती रहीं. शांति निकेतन में सप्तपर्णी की सुगंधित छाँह में बैठे गुरूदेव का संगी-साथी तिलक कामोद भी रहा है. टैगोर ने जब नृत्य-नाट्य ‘श्यामा’ तैयार किया तो उसके रंग संगीत में यह राग भी चला आया.
श्रुति परंपरा कहती है कि तिलक कामोद की रचना द्वापर काल में कृष्ण ने की। बंसी पर उसकी तान छेड़ी. गोपियों को रिझाया. प्रेम, श्रृंगार और लालित्य में प्रकृति को टेरती उनकी विश्व मोहिनी मुरली की धुन पर तिलक कामोद उत्सव ही तो था.
तिलक कामोद रात के दूसरे पहर में जागता है. उस रात की कल्पना कीजिए जब चाँद को चूमकर अपने अधरों पर चाँदनी का शहद लिए पहाड़ों, नदी-समंदर और बयार के झोंकों से बतियाती रूह किसी प्रेमिल मन में ठिकाना पाती है. रजत पटल पर राजकपूर ऐसे में गा उठते हैं- “हमने तुझको प्यार किया है जितना, कौन करेगा उतना”. यूँ पोर-पोर पुकार उठता है तिलक कामोद.
‘राग संगीत’ के गहरे अध्येता वासुदेव मूर्ति ने तिलक कामोद की व्याख्या करते हुए उसके दार्शनिक और सांस्कृतिक पहलुओं पर बहुत ही रसपूर्ण चिंतन किया है. उनके यहाँ खुद यह राग अपने लालित्य का बखान कर रहा है. वह कहता है- “मुझे गाओ. तुम्हारा जीवन उल्लास से भर जाएगा. बाग में पुष्प स्वयं शीघ्रता से खिलते हैं और अपने भीतर से ऐसे रंग उड़ेलते हैं जिनकी उन्हें पहले कभी आवश्यकता नहीं पड़ी. पक्षी अपनी सबसे प्रिय और आत्मिक धुन गाते हुए, उन्मुक्त रूप से आकाश में उड़ते हैं. यह मेरा यानी राग कामोद का सौन्दर्य है! दुःख का क्या अर्थ है, हमें नहीं पता! हम बिना परवाह एक-दूसरे के साथ लुकाछिपी खेलते हैं! यही छन्द हूँ मैं.”
मेरे भीतर की स्त्रियाँ खिलखिलाती हैं और अपनी सखियों को रहस्य की बातें फुसफुसाती हैं. क्या हम वास्तव में उस समय से उभरे हैं जब कृष्ण अपनी गोपियों के साथ रास खेलते थे? प्रत्येक गोपी एक पल के लिए कृष्ण का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए और अधिक मोह लेने की कोशिश करती. जब कृष्ण अपने नेत्र राधा से हटा, एक क्षण के लिए उसे देखते, तो शरमा जाती! कितनी आनन्दित, क्षणभंगुर प्रेमलीला है!
बाग में पुष्प खिलते हैं और अपने भीतर से रंग उड़ेलते हैं. पक्षी अपनी सबसे प्रिय और आत्मिक धुन गाते हुए, उन्मुक्त आकाश में उड़ते हैं. यही मेरा यानी राग कामोद का सौन्दर्य है!
जहाँ अन्य रागों में तीव्र मध्यम तनावपूर्ण और संयमित लगता है, मेरे भीतर जीवन के उत्सव को प्रोत्साहित करता है. लेकिन हल्के नीले रंग के जगमगाते पंचम के बिना यह कहाँ होगा? लाल गाल और माथे पर पसीने के साथ, शुद्ध गांधार, तीव्र मध्यम, पंचम, शुद्ध गांधार, शुद्ध मध्यम, षड्ज, शुद्ध ऋषभ और षड्ज को पुकारो और पीपल के पेड़ के पीछे से झाँकने वाले नवजात हिरन के बच्चे को चिढ़ाओ, जो जानने के लिए उत्सुक है कि यह सारा उपद्रव किस विषय में है! वह बिना किसी भय के सीधे तुम्हारे पास चला आएगा क्योंकि वो जानता है कि वो बिना किसी प्रतिबंध के अपने नए जीवन का उत्सव मना सकता है! एक कोयल बार-बार पुकारती है, शुद्ध मध्यम, शुद्ध ऋषभ, पंचम! एक पुष्प वाले वृक्ष की टहनी पर बैठ, वह अपना सिर एक तरफ़ झुका लेती है और उत्सुकता से नीचे के दृश्य को देखती है, जहाँ नवयुवतियाँ डांडिया खेल रही हैं, और उनके चटक लाल घाघरे और हरी चोलियाँ, जड़े हुए शीशों के कारण चमक रहे हैं! हर कोई एक-दूसरे को प्यार से छेड़ता है! इस सब के बीच में, सारे उत्साह और प्रेम का स्रोत है, कृष्ण स्वयं, जो मुझे बाँसुरी पर बजाते हुए! मैं कामोद हूँ, प्रकृति और जीवन के उत्सव में कृष्ण द्वारा बनाया गया!
तिलक कामोद अपनी आत्मकथा जारी रखता है- तीव्र मध्यम, पंचम, शुद्ध धैवत और पंचम! चमेली की लड़ी के समान ये स्वर, शीघ्रता से गाए जाने पर, कितनी अच्छी तरह से सुखद आतुरता को बिखेरते हैं! मुझमें छिपे अनमोल रहस्यों को उत्तरंग सप्तक में, पूरे कण्ठ से और बिना नियंत्रण के गा कर अनुभव करो. षड्ज, शुद्ध निषाद, शुद्ध ऋषभ, षड्ज, शुद्ध धैवत, पंचम… ये बाग के पंछी हैं जो कृष्ण को व्याकुलता से पुकार रहे हैं और उन पर भी ध्यान देने के लिए कह रहे हैं! और कृष्ण मुस्कुराते है और उन्हें शुद्ध गांधार, शुद्ध मध्यम, पंचम, शुद्ध मध्यम, षड्ज, शुद्ध ऋषभ और षड्ज स्वरों के साथ प्यार से स्वीकार करते हैं. आनन्द के एक रोमांच के साथ, पक्षी आकाश में ऊपर उड़ जाते हैं और अब तीव्र गति से ऊपर और नीचे गोते लगाते हुए उनका ध्यान बनाए रखने का प्रयास करते हैं. उनकी देह प्रकाशमान नीले आकाश के मध्य ताने हुए, वे अपनी उन्मुक्त उड़ान का प्रदर्शन करते हैं. तिलक कामोद कहता है कि मेरे पास बात करने के लिए और अधिक समय नहीं है क्योंकि अब मुझे जाना चाहिए तथा उन सभी लोगों के साथ जुडना चाहिए, जो मासूमियत, आनन्द और शुद्ध प्रेम के साथ नाच और गा रहे हैं! इतना कहकर कामोद चला गया, इधर-उधर घूमता हुआ, वह सभी के चखने के लिए हँसी और मुस्कान फैला रहा था. मुझे आश्चर्य हुआ कि क्या मैंने सच में कृष्ण को सुन्दर युवा लड़कियों से भरे हुए उस आपे से बाहर भँवर के बीच देखा था, जिसमें वे खेल रही थीं और कृष्ण का ध्यान आकर्षित करने के लिए वो सब कर रही थीं, जो कुछ भी उनके वश में था!
मुझे अपनी आत्मा को वापस लौटने के लिए पुकारना पड़ा. उसने मेरी बात सुनी और लौट आई. ऊर्जा व्यय करने के पसीने और ख़ुशी से सराबोर! वह अभी भी गुनगुना रही थी. हर राग का अपना वजूद होता है लेकिन जीवन और प्रकृति से अलग नहीं है उसका संसार. हमारा और उसका अंतरंग एक है. जब वह ‘सम’ पर मिल जाते हैं तो नाद चैतन्य हो उठता है. हर राग इसी मोक्ष की कामना से भरा है.
