डॉ. प्रवीण शुक्ल समकालीन वाचिक परंपरा के बेहद चर्चित कवि हैं. अपनी हास्य, ओज-वीर और शृ्ंगार रस से ओत-प्रोत कविताओं के माध्यम से प्रवीण शुक्ल भारत ही नहीं दुनिया के मंच पर हिंदी की पताका लहराह रहे हैं. पेशे से अध्यापक रहे प्रवीण शुक्ल अपनी सेवाओं से स्वैच्छिक सेवा अवकाश लेकर अ्ेब पूरी तरह से काव्य सृजन में लीन हैं.
हापुड़ जनपद के पिलखुवा कस्बे से संबंध रखने वाले डॉ. प्रवीण शुक्ल के पिता श्री ब्रज शुक्ल भी अपने समय पर चर्चित कवि रहे हैं. वे ‘घायल’ उपनाम से काव्य रचना करते थे. इस समय तमाम सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर प्रवीण शुक्ल का जन्मदिवस मनाया जा रहा है. प्रवीण का जन्म 12 नवंबर, 1970 को हुआ था. हालांकि, उनकी वास्तविक जन्मतिथि 7 जून है.
प्रवीण शुक्ल की कविताओं में मानवीय संवेदनाएं हैं तो आदर्श जीवन का संदेश भी. व्यक्तित्व निर्माण में किसी भी व्यक्ति का स्वभाव बेहद महत्वपूर्ण होता है. ‘स्वभाव’ नाम से प्रवीण शुक्ल की कविता में जीवन दर्शन का मर्म छिपा हुआ है. वे कहते हैं-
कोयल का रंग है काला,
लेकिन उसका स्वर है
सबसे निराला,
सहम जाना
ज़रा सी आहट पर
होता है
हिरन का स्वभाव,
लेकिन नहीं होता
उसकी गति का
कोई भी जवाब,
एक बात समझनी होगी
गौर से,
बेशक पैर कुरूप हैं
लेकिन नाचना तो
सीखना ही पड़ेगा मोर से,
नहीं होता
बया के पास
किसी गिद्ध से
लड़ने का हौंसला,
लेकिन कभी नहीं बना सकता
कोई गिद्ध
बया जैसा महीन घौंसला,
इसलिये,
कभी भी
कोयल को न देना
उसके रूप पर ताना,
बया से न कहना
क्या आता है तुमको
कोयल जैसा गाना,
मोर से न कहना-
बया जैसा घोंसला बनाओ,
और न कहना गिद्ध से-
मोर की तरह
नाच कर दिखाओ,
विशेष विशेषता
जो है एक के पास,
वही तो बनाती है
उसे दूसरों से ख़ास,
इसलिये
इस प्रकृति में
जब भी, जिसका भी
थामो हाथ
उसे स्वीकारो
उसके मूल स्वभाव के साथ।
मोर, हिरन, कोयल के माध्यम से प्रवीण शुक्ल की गहरी बात कह गए. यही बात प्रवीण को अन्य कवियों से अलग बनाती है. जिस स्वभाव को अपनाने का संदेश वे लोगों के देते हैं, उस संदेश को प्रवीण ने अपने व्यक्तित्व में भी गहरे से उतारा हुआ है. बेहद मिलनसार और मृदु वाणी के धनी प्रवीण शुक्ल की कविताएं निराश-हताश व्यक्ति को हौसला देने का भी काम करती हैं. इसकी बानगी उनकी इस कविता में देखी जा सकती है-
कैसे कह दूं कि थक गया हूं मैं
जाने किस-किस का हौसला हूं मैं
दाग़ खुद के छिपाए फिरता है
और कहता है आईना हूं मैं
तेरे किस काम के हैं चारागर
तेरे हर रोग की दवा हूं मैं
हाय, उस बेवफ़ा का ये कहना
बावफ़ा सिर्फ बावफ़ा हूँ मैं
मुझसे ग़म दूर-दूर रहते हैं
जानते हैं कि कहकहा हूं मैं
तू मेरी रूह में समाया है
सबसे कह दे तेरा पता हूं मैं
तुझको मंजिल मुझी से मिलनी है
तेरी मंजिल का रास्ता हूं मैं।
लगभग एक दर्जन गीत, कविता, संस्मरण और शोध ग्रंथों के लेखक प्रवीण शुक्ल हास्य क्षणिकाओं के माध्यम से जीवन के यथार्थ पर ऐसा कटाक्ष करते हैं कि सुनने वाला अवाक रह जाता है. उनकी कविता “अस्सी नब्बे पूरे सौ” में प्रवीण ने वेतनभोगी आम आदमी के संघर्ष को बयां किया है. आप भी इस कविता का आनंद लें-
आम आदमी के जीवन की
आओ हमसे कथा सुनो
सुबह-शाम ही जोड़ लगाता
अस्सी नब्बे हो गये सौ
अक्कड़, बक्कड़ बम्बे बो
पहली ही तारीख को कहती
ये मुन्ने की अम्मा जी
कुछ भी ना लाता नालायक
तू तो बड़ा निकम्मा जी
आज नगद ही ला दे या फिर
ला दे आज उधार मुझे
चार साल से कहता है
साड़ी ला दे इस बार मुझे
रामदीन बोला-देवी यूं
जिद्दी भाषा मत बोलो
रहने दो अपनी मांगों का
बन्द पिटारा मत खोलो
पत्नी बोली रोज-रोज का
रोना धोना बन्द करो
चाहे खुद नंगे हो जाओ
मुझको साड़ी लाकर दो
रामदीन ने जेब टटोली
रुपये निकले केवल दो
अक्कड़, बक्कड़ बम्बे बो
अस्सी नब्बे पूरे सौ
ईना और मीना से मुझको
जाकर मिलना भैया जी
छोटा भाई भी आकर के
मांगे रोज रुपैया जी
रामदीन बोला- नालायक
भोग रहे हैं हम कड़की
इस कड़की के अन्दर तुझको
नजर आ रही है लड़की
सुन भाई की जगह कसाई
मुझको लगता तू ड्रामा
मिलना अगर जरूरी है तो
सिलवा ले तू पाजामा
भाई बोला- भेदभाव की
बातें सारी बन्द करो
भाभी को साड़ी लाते हो
मुझे जीन्स भी लाकर दो
अब सौ-सौ के नोट निकालो
एक-एक कर पूरे नौ
अक्कड़, बक्कड़, बम्बे बो
अस्सी नब्बे पूरे सौ
रामदीन की फँसी जान को
बढ़ते जाते हैं लफड़े
चुन्नु कहता-पापा-पापा
मेरे ना लाये कपड़े
रामदीन बोला- तनख़ा
उड़ जाती रोटी-दाल में
महंगाई ने भी भुस
भर डाला है मेरी खाल में
चुन्नू तू तो चार साल का
प्यारा प्यारा बच्चा है
क्या कर लेगा पैंट पहनकर
बिन कच्छे के अच्छा है
फिर चुन्नू को गोदी में लेकर
मन-ही-मन सोचे यों
जब उधार ही दिलवाना तो
इसको ना दिलवाऊं क्यों
कपड़े दे कर लाला बोला
पैसे दे दे, पिछले तो
अक्कड़, बक्कड़, बम्बे बो
अस्सी नब्बे पूरे सौ।
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FIRST PUBLISHED : November 13, 2023, 13:36 IST
