(ममता जयंत/ Mamta Jayant)

गांव से शहर तक की कहानी कहता, समाज में व्याप्त अनेक कुरीतियों को उजागर करने वाला सुमति सक्सेना लाल का उपन्यास ‘वे लोग’ आज के समय की सार्थक और जरूरी कृति है. सुमति सक्सेना लाल अपनी सरल-सहज भाषा से कुछ रुककर कुछ, चलकर हिंदी साहित्य को समृद्ध करती रही हैं. ‘वे लोग’ उनका पांचवां उपन्यास है. इससे पहले उनके तीन कथा संग्रह- ‘अलग-अलग दीवारें’ ‘कवच’ ‘दूसरी शुरुआत’ और पांच उपन्यास- ‘चौथा पुरुष’ ‘दण्डशिला’ ‘होने से न होने तक’ ‘फिर…और फिर’ व ‘ठाकुर दरवाजा’ प्रकाशित हो चुके हैं. लम्बे अंतराल के बाद लेखन से जुड़ने वाली सुमति ने अपने रचनाक्रम की दूसरी पारी में साहित्य को समृद्ध करने वाली कई संग्रहणीय कृतियां दी हैं. ‘वे लोग’ उन्हीं में से एक है जो उनकी नवीनतम कृति है.

उपन्यास की भूमिका में लेखिका ग्रामीण जीवन से सरोकार न रखने की बात करते हुए भी उपन्यास में ग्राम्य और शहरी जीवन को एकसार रूप से सामने लाती हैं. उपन्यास का कथानक बड़ी कुशलता से बुना गया है, जहां ग्रामीण और शहरी परिवेश समाहित है वहीं निम्न वर्ग से लेकर उच्च वर्ग तक आए हैं. उपन्यास में पात्रों की संख्या कथानक के साथ-साथ बढ़ती जाती है. लेखिका वसुधा की अम्मा उपन्यास में मुख्य पात्र के रूप में नजर आती हैं.

कहानी की शुरूआत उस घर से होती है जो अम्मा के बीतने के बाद बन्द पड़ा है. लेखिका की ममेरी बहन हैरान-परेशान बिट्टो कुछ समय उसमें गुजारना चाहती है जिसके लिए वह लेखिका वसुधा से बात करती है लेकिन वह जवाब देने की स्थिति में नहीं है क्योंकि वह घर उसका नहीं उसके भाई चंदर का है. फिर भी वह उसे दिलासा देते हुए कहती हैं-
“मैं चंदर से बात करूंगी.”

यह घर का होना न होना पुत्र और पुत्री के बीच अन्तर को दर्शाता है. गहरी झुंझलाहट है लेखिका के मन में. यहां बेटे-बेटियों के बीच जमीनी हक को लेकर वे एक बड़ा सवाल खड़ा करती हैं.

यह कहते हुए- “बारह साल बड़ी हूं मैं चंदर से पर बिट्टो के इस घर में रहने के लिए मुझे चंदर से इजाजत लेनी पड़ेगी. हक के हिसाब से तो कुछ भी नहीं हम बेटियों का”. आखिर वह कौन सा विशेषाधिकार है चंदर के पास जिसके लिए उन्हें उससे पूछने की जरूरत है? जबकि घर अम्मा-बप्पा का है.

हर बार चिंदी-सी चिट्ठी भेजने वाली अम्मा ने इस बार लम्बा-सा खत भेजा है जिसमें रज्जन से बिट्टो की शादी की बात लिखी है. रज्जन वसुधा के ताऊ का बेटा जो उससे चार साल बड़ा है. पढ़कर वसुधा स्तब्ध है और कहती है- “एकदम बच्ची जैसी तो है. मुश्किल से सोलह साल की होगी. मुझसे चार साल बड़े तीस साल के रज्जन भईया” यहां लेखिका की बाल विवाह के अफसोस के साथ बेमेल विवाह की तकलीफ भी नजर आती है.

कोई स्त्री-पुरुष अपने जीवन में अपने लिए कुछ कर पाए या न कर पाए पर संतान के लिए हर संभव सुख देने का प्रयास जरूर रहता है. जीवन भर दुख झेलने वाली अम्मा नहीं चाहती कि उनकी बेटी भी उसी गांव-गंवई में धंसकर रह जाए जो झेला है उन्होंने उम्र भर. वे बेटी को ऐसे माहौल से निकालना चाहती हैं जहां बिट्टो की शक्ल में नयी पीढ़ी एक बार फिर पुरानी पीढ़ी को दोहरा रही है. बेटी को गांव से निकालने के लिए अम्मा बड़े निरीह भाव से अपने भाई से गुजारिश करती हैं, यह कहते हुए- “दद्दा इनको अपने पास रख लो और अपने बच्चों की तरह पढ़ा-लिखा कर इंसान बना दो, नहीं तो वहां गांव में रहते यह भी…!” अम्मा के मन में अपनी गांव-गंवई में बिताई जिन्दगी को लेकर गहरा अफसोस है.

उपन्यास में आई स्त्रियां जागरूकता का अर्थ तो जानती हैं पर वे अपना क्रोध और विरोध दर्ज करना नहीं जानतीं. लेकिन कथानक के आगे बढ़ने के साथ-साथ वसुधा जैसी स्त्रियां शिक्षा की लौ से खुद को प्रदीप्त करती दिखाई देती हैं और जहां अब तक स्त्रियां मूक रहकर पारंपरिक दमन झेलने को विवश थीं. अब उनकी मानसिकता में बदलाव आने लगा है. पर लेखिका कहीं भी आक्रांत होती नजर नहीं आती. उनकी स्वाभाविक सरलता और सहजता उनके लेखन में परिलक्षित होती है.

परिवर्तन की बयार के चलते युवा पीढ़ी अशिक्षा और अवरोध के नियन्त्रण से बाहर आकर शहर की खुली हवा में सांस लेने लगती है. वसुधा इसका जीता-जागता उदाहरण है जो शहर में मामा के पास रहकर स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी करके कॉलेज में नौकरी करने लगती है और शहर के ख्यातिप्राप्त वकील के बेटे संजय से उसका विवाह हो जाता है जो पेशे से डॉक्टर है. वसुधा अपनी शिक्षा का सकारात्मक प्रयोग करते और मां की इच्छा पहचानते हुए अपने छोटे भाई चंदर को अपने साथ शहर ले आती है. वसुधा के सास-ससुर उच्च विचार रखने वाले शिक्षित और समझदार लोग हैं जो चंदर को सहज स्वीकारते हैं साथ ही पढ़ाई-लिखाई में उसकी मदद भी करते हैं. और चंदर भी पढ़-लिखकर एक दिन कामयाब वकील बन जाता है. अम्मा चंदर की कामयाबी से खुश है लेकिन उनके भीतर एक मायूसी भी है. इस कामयाबी में वह वसुधा और उसके ससुराल वालों का बड़ा योगदान मानती है जिसके लिए उनके प्रति कृतज्ञ है.

वसुधा के छोटे मामा मोहन की पत्नि संतो गंभीर बीमारी से ग्रस्त है. उन्हें अपनी मरणासन्न पत्नि की मृत्यु का बेसब्री से इंतजार है और उसके तुरन्त बाद बेटी बिट्टो का समय से पहले ब्याह रचा देने का जिससे बेफिक्र हो अपनी दूसरी शादी कर सकें. मामी संतो के मरते ही बिट्टो की शादी वसुधा के ताऊ के बेटे रज्जन से हो जाती है. बिट्टो जो वसुधा की बहन है अब भाभी बनती है.

वसुधा घर-परिवार, नौकरी की जिम्मेदारी निभाते हुए अम्मा-बप्पा की खबर लेना नहीं भूलती. गांव भी बराबर आती-जाती रहती है पर वकील बनने के बाद चंदर के व्यवहार में खासा फर्क नजर आने लगा है. अम्मा जो उसके घर शहर आना नहीं चाहतीं वह भी गांव जाकर उनकी खबर लेना जरूरी नहीं समझता. अपनी इस गलती का एहसास उसे तब होता है जब अम्मा-बप्पा दोनों इस दुनिया से विदा ले चुके होते हैं. इस प्रायश्चित का अब कोई अर्थ नहीं रह जाता.

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अम्मा की जिंदगी दोहरा रही बिट्टो के दुखों को लेकर वसुधा का मन उदास है. वह अम्मा को याद करती सोचती है- अम्मा भी पूरे जीवन अपने मन की बात कहां कह पाई. अब वही हाल बिट्टो का है.

उपन्यास में जहां स्त्री मन की पीर दिखाई देती है वहीं पितृसत्ता के दुखों की झलक भी साफ तौर पर नजर आती है. जिसे पढ़ने में लेखिका पूरी तरह सफल रही है. जब वे यह कहती हैं- “पर न्याय बप्पा के साथ हुआ क्या”? इस वाक्य के साथ वे पुरूष वेदना को उजागर करना भी नहीं भूलती.

समय-समाज की घटना और परिस्थितियों को उभारते कुछ अन्य किस्से और हिस्से भी समाहित हैं उपन्यास में. जैसे- किसानों पर की जाने वाली चर्चा या लखनऊ के आस-पास के गांवों में बिजली, पानी, सड़क आदि की समस्या. उपन्यास में कुछ भावपूर्ण दृश्य उभरकर आते हैं.

पुस्तक की खास बात जो ध्यान खींचती है वह भाषा की सादगी, सरलता और सहजता के साथ उसकी संवेदनात्मक गहराई है. कथानक की भाषा-शैली, शिल्प-सौंदर्य, भाव-संवेदना, विचारों के प्रयोग उपन्यास को ल्यात्मकता और जीवंतता से भरने का कार्य करते हैं. पुस्तक पाठक के प्रवाह को बनाए रखने में पूरी तरह सफल है. पुस्तक में बिन्दु-वर्तनी संबंधी त्रुटियों के साथ रहस्यात्मक दृश्यों का अभाव नजर आता है संभव है कहानी की मांग हो!

पुस्तकः वे लोग (उपन्यास)
लेखिकाः सुमति सक्सेना लाल
प्रकाशनः वाणी प्रकाशन
मूल्यः 360 रुपये

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