विचार, भाव और अवधारणा
प्रस्तुति :ओम प्रकाश चौहान
वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार, ग्रेटर नोएडा
विचार, भाव और अवधारणा यह तीनों ही पानी के तीन स्वरूप की तरह हैंI गैस, द्रव और ठोस – बादल, पानी और बर्फ।
मेरा मानना है कि हमारा कोई विचार अपना निजी विचार नहीं होता। वह हमें किसी न किसी से उपहार में मिलता है। माता-पिता, परिवार, समाज, शिक्षक, गुरु, ग्रंथ और आज के समय में टीवी, सिनेमा सोशल मीडिया आदि के माध्यम से ही हमें मिलता है।
हम अपने निर्मित अहंकार ( पहचान या आइडेंटिटी) द्वारा उन विचारों के पक्ष्य या विपक्ष्य में खड़े होकर उनसे तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं। तब वे विचार हमारे व्यक्तिगत विचार की तरह भासना लगते हैं। भासना अर्थात प्रतीत होना। अहंकार अर्थात वह चश्मा जो हमने अपनी आंख पर चढ़ा ली होती है, अपनी पहचान के रूप में।
भासना (प्रतीत होना) क्या है?
इसको एक उदाहरण से समझिए। उदाहरण स्वरूप एक सीधी छड़ी को पानी में डालो तो छड़ी का वह भाग जो पानी के अंदर है, छड़ी के सापेक्ष्य टेढ़ा प्रतीत होने लगता है। टेढ़ा है नहीं यह हम जानते हैं, फिर भी टेढ़ा प्रतीत होता है। यही है भासना। विज्ञान इसकी व्याख्या करता है प्रकाश की किरण की दिशा, और जिसके अंदर से प्रकाश गुजर रहा है उस द्रव्य के घनत्व से। घनत्व के कारण प्रकाश की किरण की दिशा बदल जाती है इसलिये वह टेढ़ी प्रतीत होती है।
पक्ष्य और विपक्ष्य में हम क्यों खड़े होते हैं ?
कृष्ण इसका उत्तर देते हैं :
“इंद्रियः इन्द्रियार्थेषु राग द्वेष व्यवस्थितौ”
हमारा मन और बुद्द्धि सदैव सापेक्ष्य में काम करते हैं। सापेक्ष्य अर्थात तुलना में। नमक की तुलना मिठास से, दिन की तुलना रात से, आदि आदि। यह नियम है। ऐसे ही हमारा माइंड काम करता है। आधुनिक शब्दों में लाइक और डिसलाइक। हम जिसके भी संपर्क में आते हैं, जिनसे भी हमारा साक्षात्कार होता है – व्यक्ति, वस्तु, विचार या भाव, उनको हम या तो पसंद करते हैं या नापसंद। जिनके आप संपर्क में नहीं हैं, उनके लिए यह नियम नहीं लागू होता। तो पहली बात जिन विचारों को हम अपना मान लेते हैं वे हमसे नहीं निकले, वरन हमने किसी न किसी से उधार ले रखा है। परंतु उनसे तादात्म्य के कारण हम उन्हें अपना मान बैठते हैं।
…और विचार वाष्प की भांति हैं बादल की भांति उड़ते हुए, हजारों लाखों की संख्या में प्रतिदिन विचार हमारे मन में मंडराते रहते हैं।
फिर बात आती है भाव की, इमोशन्स की। इमोशन विचारों के घनीभूत रूप हैं, पानी जैसा। आप पहले किसी को पसंद या नापसंद करते हैं। फिर कुछ ऐसा होता है कि आप उसे अधिक पसंद या नापसंद करने लगते हैं। और फिर और अधिक और अधिक। एक समय आता है कि आपको लगता है कि आप उसके बिना जी ही नहीं सकते। लेकिन कब तक ऐसा होगा? जब तक वह आपकी अपेक्षाओं के अनुकूल व्यवहार करता है।
देखा है न – सारे समाज और अपने परिवार से द्रोह करके – प्रेम विवाह किया। लेकिन फिर कुछ वर्ष बाद – झंझट झगड़ा शुरू हुआ, और फिर विवाह विच्छेद। जिनके बिना कभी जी नहीं सकते थे, उनके साथ अब जीना संभव नहीं है। ठीक ऐसा ही नियम डिसलाइक या नापसंदगी के साथ भी होता है।
विचार और भाव के स्तर पर हमारे अंदर बदलाव संभव है। जिनको हम पसंद करते थे, उनको कल हम नापसंद कर सकते हैं। जिनके बिना हम जी नहीं सकते थे, उनके साथ जीना जहर के घूंट पीने जैसा लग सकता है।
तीसरे स्तर पर है – अवधारणा – firm believe. एक विचार या विचारधारा से इस तरह चिपक जाना, जैसे बंदरिया का बच्चा अपनी मां से चिपक जाता है। मर जाएगा लेकिन छोड़ेगा नहीं। किसी विचार या भाव को अंतिम सत्य मानकर उसके साथ खड़े होना। प्राण प्रण के साथ। जीवन और मृत्यु को अलग रखकर। अब जो विचार वाष्प से पानी बना था, अब बर्फ बन चुका है। बर्फ कहना भी गलत होगा-हिमखंड कहिए, जो पिघलता नहीं है। पत्थर, शिलालेख।
जो टस से मस नहीं हो सकता। प्राणों का बलिदान स्वीकार है परंतु विचार धारा को खंडित नहीं होने देंगे।
प्रायः विचार, विचारधाराओं को इसी तरह स्थापित किया जाता है, आपके मन में आपकी पहचान बनाकर।
तभी तो कोई व्यक्ति, भिन्न मत और विचारधारा वालों की हत्या करने हेतु, स्वयं को बम बनाकर आत्महत्या कर लेता है। हम भले ही प्रतिदिन इन घटनाओं का साक्षात्कार न कर पाते हैं लेकिन वर्ष में सैकड़ो दिन इन घटनाओं का साक्षात्कार करते हैं, उन्हीं घटनाओं का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण है यह।
प्रस्तुति :ओम प्रकाश चौहान, वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार, ग्रेटर नोएडा